रविवार, 26 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(६३/६५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*साधु पारख लक्षण*
*जिनके हिरदै हरि बसै, सदा निरंजन नांऊँ ।* 
*दादू साचे साध की, मैं बलिहारी जांऊँ ॥६३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिन सच्चे संतों के हृदय में हरि, आवरण रहित होकर बसता है, उन संतों के अर्थात् मुक्त - पुरुषों के ऊपर हम वारणे जाते हैं ॥६३॥ 
*साचा साधु दयालु घट, साहिब का प्यारा ।* 
*राता माता राम रस, सो प्राण हमारा ॥६४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत राम की भक्ति में मग्न होने से परमेश्‍वर ही का शरीर हैं और दया की मूर्ति हैं और वे ही परमेश्‍वर को अति प्रिय हैं । ऐसे अधिकारी पुरुष तो हमें अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं ॥६४॥ 
*सज्जन दुर्जन* 
*दादू फिरता चाक कुम्हार का, यों दीसे संसार ।* 
*साधुजन निहचल भये, जिनके राम अधार ॥६५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे डंडे के सहारे से कुम्हार चाक को घुमाता है, इसी प्रकार काल रूपी माया कुम्हार है और कर्म ही डंडा है । विषय - वासनाओं की तृष्णा के द्वारा सारे संसार को जन्म - मरण के चक्र में घुमाता है । जिस तरह कुम्हार निश्‍चल है, इसी तरह परमेश्‍वर भी निश्‍चल है और परमेश्‍वर के भक्त संत भी स्थिर हैं ॥६५॥ 
(क्रमशः)

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