रविवार, 26 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(६६/६८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*सत्संग महिमा*
*जलती बलती आतमा, साधु सरोवर जाइ ।* 
*दादू पीवै राम रस, सुख में रहै समाइ ॥६६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारी अज्ञानी प्राणी, तीन ताप और भोजन - वस्त्र आदि से पीड़ित होकर संतों की सत्संगति में आते हैं । फिर वे नाम - स्मरण द्वारा उन सब दुःखों से मुक्त होकर सुख - स्वरूप परमेश्‍वर में समा जाते हैं ॥६६॥ 
दत्तात्रेय मुनि पै गयो, अलरक जलता जान । 
ताको गुरु सीतल कियो, दे दे उत्तम ज्ञान ॥ 
दृष्टान्त ~ राजा ऋतुध्वज की रानी मन्दालसा थी । उसके चार पुत्र हुए । तीन पुत्रों को उसने वैराग्य का उपदेश करके परमेश्‍वर के स्वरूप में लगा दिया । वे तीनों क्रम - क्रम से निर्जन स्थान में जाकर समाधिस्थ हो गये । उसकी प्रतिज्ञा थी कि जो मेरे गर्भ में आवेगा, उसको मैं मुक्त कर दूँगी । जब चौथे पुत्र अलर्क को भी वैराग्य का उपदेश करने का विचार किया, तब राजा बोले कि इस राज को कौन संभालेगा ? अब तो अपन दोनों शास्त्र आज्ञानुसार वानप्रस्थ आश्रम को धारण करें और यह राज इसको देवें । रानी विचारशील थी । 
राजा के विचारों से सहमत होकर अलर्क को राजतिलक कर दिया और एक कागज में मंत्र लिखकर, जंत्र बनाकर उसकी भुजा के बांध दिया और बोली ~ “पुत्र ! मेरी प्रतिज्ञा है, उसको सत्य करना । अपने पुत्रों को राज देकर, अपने आत्म - कल्याण के साधनों को अपनाना और कभी भारी दुःख आवे तो, इस ताबिज को खोलकर पढ़ लेना, तेरा दुःख दूर हो जायेगा ।” यह कहकर राजा और रानी जंगल में चल पड़े । 
आगे तीनों पुत्र जहाँ पर तप कर रहे थे, वहाँ पहुँचे । माता - पिता को देखकर तीनों पुत्रों ने नमस्कार किया और बोले ~ “हमें क्या आज्ञा हैं ?” मन्दालसा ~ “अलर्क कहीं राज में फँसकर मेरी प्रतीज्ञा को झूठी न कर दे । अगर राज में फँस जाये तो आप उसे निकाल कर लाना, यही आज्ञा है ।” राजा रानी आगे चले गये । इधर अलर्क राज के मोह में आसक्त हो गया । माता के उपदेश को भूल गया । 
तीनों भाई आये, खबर कराई कि आपके भ्राता आये हैं । अलर्क ने नमस्कार किया और कहा ~ “आज्ञा ।” भ्राताओं ने कहा ~ “माता की प्रतिज्ञा को सत्य करो, अपने पुत्रों को राज देकर हमारे साथ चलो ।” वह हँसने लगा और बोला ~ “तुम तो फकीर हो ही, मुझे भी फकीर बनाना चाहते हो ? चलो, किले से बाहर हो जाओ ।” वे तीनों काशीराज मामा के पास गये । सेना लेकर आये और अलर्क के राज को घेऱ लिया । जब अलर्क ने किले के उपर चढ़ कर देखा, तो चारों तरफ सेना है । वह उदास हो गया । तब माता का उपदेश याद आया और यंत्र को खोलकर कागज निकाला । उसमें माता ने लिखा था ~ 
श्‍लोक ~ 
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि 
संसार - माया - परिवर्जितोऽसि । 
संसार - स्वप्नं त्यज मोह - निद्रां, 
मंदालसा - वाक्यमुवाच पुत्राः ॥ 
हे पुत्र ! तू शुद्ध है, तू बुद्ध है, तू निरंजन है, संसार रूप माया से तू रहित है । संसार स्वप्न के समान प्रतिभासिक सत्ता वाला है । इस मोह रूपी निद्रा से आँखें खोल । यह माता मंदालसा के वचन हैं, विचार कर । जब अलर्क ने इस श्‍लोक का विचार किया, तो ज्ञान हो गया और खुले सिर नंगे पांव जैसे था, वैसे ही उठकर चल पड़ा और “अहं शुद्धोऽसि, अहं बुद्धोऽसि, अहं निरंजनोऽसि” इस प्रकार बोलते हुए को भ्राताओं ने देखा । सेना ने रास्ता दे दिया । जंगल में दत्तात्रेय महाराज से जाकर मिला । गुरुदेव ने अलर्क को आत्म - ज्ञान का उपदेश दे - देकर शीतल बना दिया । उधर उसके पुत्रों को राज देकर तीनों भ्राताओं ने माता की प्रतिज्ञा को सत्य किया । 
*कृत्तम कर्त्ता* 
*कांजी मांहीं भेल कर, पीवै सब संसार ।* 
*कर्त्ता केवल निर्मला, को साधु पीवणहार ॥६७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण संसार के प्राणी, नाना कामना, कहिये वासना रूप कांजी मिलाकर राम - नाम का स्मरण करते हैं, अर्थात् सकाम कर्मों द्वारा । परन्तु उनका वह भजन मोक्ष देने वाला नहीं है । संसार में जन्म - मरण प्राप्त करावेगा । वह सबका रचयिता परमेश्‍वर निरंजन, निराकार, निर्गुण रूप है, उस का भजन रूप अमृत कोई विरले तत्त्ववेत्ता संत ही निर्वासनिक भाव से पीते हैं ॥६७॥ 
*संगति कुसंति फल* 
*दादू असाधु मिलै अन्तर पड़ै, भाव भक्ति रस जाइ ।* 
*साधु मिलै सुख ऊपजै, आनन्द अंग न माइ ॥६८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! असाधु कहिये, अज्ञानी संसारीजन, उनके मिलने से अर्थात् उनके व्यवहार से परमेश्‍वर में अन्तराय हो जाता है और भाव - भक्ति, नाम स्मरण रूपी रस चित्त से चला जाता है । जब परमेश्‍वर के सच्चे संत भक्त मिलें, तो उनके व्यवहार से इतना आनन्द होता है कि हृदय में शान्ति सुख समाता नहीं है ॥६८॥ 
एक वन में दोइ सूईटा, इक तपस्वी इक व्याध । 
ज्यूं पालै त्यों ही पढ़ै, दुतिए अजामिल साध ॥ 
दृष्टान्त ~ जंगल में एक तपस्वी और दूसरा शिकारी रहते थे । उनके पास एक - एक तोता था । तपस्वी तोते को राम - नाम आदि पढ़ाते थे । शिकारी का तोता, “मारो, काटो, लूटो”, यही पढ़ता था । उस तपस्वी वाले तोते ने पक्षी शरीर में ही सुसंगति द्वारा आत्म - कल्याण कर लिया । दूसरा शिकारी वाला तोता कुसंगति पाकर चौरासी में चला गया । इसी प्रकार अजामिल ब्राह्मण, वेश्या का कुसंग करके कुकर्मी और राक्षस बन गया, फिर संतों की सुसंगति पाकर अपना उद्धार कर लिया । यह सबको पता है । 
(क्रमशः)

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