॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= साधु का अंग १५ =*
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*जग जन विपरीत*
*दादू आनंद सदा अडोल सौं, राम सनेही साध ।*
*प्रेमी प्रीतम को मिले, यहु सुख अगम अगाध ॥७८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे मुक्त ब्रह्मवेत्ता संतजन काल - कर्म - गुण - विकार से रहित, अचल उस एक परमेश्वर में लय लगाकर, ब्रह्मानन्द में निरन्तर मग्न रहते हैं, क्योंकि जिज्ञासुजनों को परमात्मा से मिलने का एवं स्वस्वरूप प्राप्ति का सुख सीमा रहित है ॥७८॥
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*पुरुष प्रकाशिक*
*यहु घट दीपक साध का, ब्रह्म ज्योति प्रकाश ।*
*दादू पंखी संतजन, तहाँ परैं निज दास ॥७९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत भक्तों का, यह स्थूल शरीर ही दीपक है और भक्ति वैराग्य आदि इसमें तेल है । शुद्ध वृत्ति रूप बत्ती इसमें लगी है और ब्रह्मज्ञान रूप ही इस दीपक की ज्योति है और उत्तम मुमुक्षु पुरुष ही पतंग रूप से वहाँ उनकी शऱण में आकर, ज्ञान सम्पादन करके, ब्रह्मभाव को प्राप्त होते हैं ॥७९॥
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*घर वन मांहीं राखिये, दीपक ज्योति जगाइ ।*
*दादू प्राण पतंग सब, जहँ दीपक तहँ जाइ ॥८०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता पुरुषों का शरीर, प्रारब्धवश चाहे प्रवृत्ति मार्ग में रहे, अथवा गृहस्थ आश्रम में रहे, या निवृत्ति मार्ग में विरक्त रहे, परन्तु उनमें ब्रह्म - ज्योति का प्रकाश, प्रकाशित रहता है । उस ज्योति के प्रेमी, उत्तम साधक पुरुष, मल - विक्षेप रहित उनकी शरण में जाकर आत्म - भाव को प्राप्त हो जाते हैं ॥८०॥
कवित्त
जिनके सुमति जागी, भोग सौं भये बिरागी,
परसंग त्यागी जे पुरुष त्रिभुवन में ।
रागादिक भाव नास, जिनकी रहन न्यारी,
कबहूँ मगन ह्वै, रहत धाम धन में ॥
जे सदैव आपकों, विचारै सर्वज्ञ सुध,
जिनके विकलता न व्यापै कहुँ मन में ।
तेहि मोक्ष मारग के साधक कहावैं सन्त,
भावै रहो मन्दिर में भावै रहो वन में ॥
(क्रमशः)
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