बुधवार, 29 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(८१/८३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*घर वन मांहीं राखिये, दीपक जलता होइ ।*
*दादू प्राण पतंग सब, आइ मिलैं सब कोइ ॥८१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! उपरोक्त अर्थ को ही पुनः दिखलाते हैं कि ब्रह्मवेत्ता मुक्त - पुरुष, चाहे घर में हों या वन में, उनकी ब्रह्मज्ञान रूप ज्योति में, पांचों ज्ञान इन्द्रियॉं, मन और प्राण, ये सभी ब्रह्म - चिन्तन करते - करते ब्रह्मरूप हो जाते हैं ॥८१॥
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*घर वन मांहीं राखिये, दीपक प्रकट प्रकाश ।*
*दादू प्राण पतंग सब, आइ मिलैं उस पास ॥८२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे मुक्त पुरुषों को, चाहे घर में रखो या वन में, परन्तु उनमें ब्रह्मज्ञान रूपी दीपक प्रकाशता है । उत्तम संत, जहॉं भी कहीं होते हैं, साधक उनकी शरण में आकर उनके ज्ञान को सम्पादन करके उनके स्वरूप ही बन जाते हैं, अर्थात् ब्रह्मरूप ही हो जाते हैं ॥८२॥
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*घर वन मांही राखिये, दीपक ज्योति सहेत ।*
*दादू प्राण पतंग सब, आइ मिलैं उस हेत ॥८३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे निष्पक्ष ब्रह्मवेत्ता संत, जिनका शरीर घर में रहे या वन में, परन्तु ब्रह्म - ज्योति सहित होवे, तो उत्तम साधक जहॉं भी कहीं होंगे, वे वहॉं से मुक्त होने की वासना लेकर, वहीं उनकी शरण में आकर, ज्ञान - सम्पादन करके ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जायेंगे ॥८३॥
(क्रमशः)

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