मंगलवार, 28 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(७५/७७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= साधु का अंग १५ =*
*साध पारख लक्षण*
*दादू अन्तर एक अनंत सौं, सदा निरंतर प्रीत ।* 
*जिहिं प्राणी प्रीतम बसै, सो बैठा त्रिभुवन जीत ॥७५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ‘अन्तर’ कहिए - भीतर अन्तःकरण में ‘एक’ - देशकाल वस्तु प्रच्छेद रहित, अद्वैत ब्रह्म से जो पुरुष अन्तराय रहित होकर स्नेह करते हैं, वे जिज्ञासु तीनों लोकों के लाभ को जीतकर, तीनों गुणों से मुक्त होकर स्वस्वरूप में स्थित हो रहे हैं ॥७५॥ 
*साधु महिमा महात्म* 
*दादू मैं दासी तिहिं दास की, जिहिं संगि खेलै पीव ।* 
*बहुत भाँति कर वारणें, तापर दीजे जीव ॥७६॥* 
टीका ~ अपने को उपलक्षण करके ब्रह्मऋषि गुरुदेव उपदेश करते है कि हे जिज्ञासुओं ! हम सभी जिज्ञासु उन ब्रह्मनिष्ठ संतों के सेवक हैं, जिन्होंने स्वस्वरूप को साक्षात्कार कर लिया है, ऐसे ब्रह्म - परिचय संतों की हम किस प्रकार वन्दना करें ? क्योंकि अब हमने तो सर्वस्व उनके चरणों में न्यौछावर कर दिया है ॥७६॥ 
वासुदेवस्य ये भक्ताः शान्तास्तद्वतमानसाः । 
तेषां दासस्य दासोऽहं भवे जन्मनि जन्मनि ॥ 
साधु एक चोपाड़ में, उतर्यो लोक समाज । 
मारन उठे असुर दोइ, मैं नरसिंह तव काज ॥ 
दृष्टान्त ~ एक संत एक गाँव में चौपाल में आकर ठहरे । बहुत से गाँव के लोग बैठे थे । उनमें से कई लोग संत को बोले ~ “यहाँ से उठ जा ।” दूसरी जगह बैठे, तो फिर बोले ~ “यहाँ से उठ जा” । ऐसे तंग करने लगे । उन्हीं में से फिर दो असुर, महात्मा को मारने को खड़े हो गये । इतने में ही तीसरे पुरुष में परमेश्‍वर प्रकट हो गये और वह बोला ~ “हे राक्षसों ! यह महात्मा तो प्रहलाद है और तुम हिरणाकुश हो और मैं नरसिंह हूँ । तुम्हारे को चीर कर डाल दूंगा ।” इस प्रकार परमेश्‍वर अपने आत्मीयजनों की रक्षा करने को तत्पर रहते हैं । जो परमेश्‍वर के साथ खेलते हैं, उन भक्तों की परमेश्‍वर रक्षा करते हैं । 
सालेरी तन मन तज्यो, हरि संतां के भाव । 
ता पुण्य परताप से, लंकापति कै जाव ॥ 
दृष्टान्त ~ एक संतों की मण्डली नगर में पहुँची । सत्संग होने लगा । एक भक्त ने खीर की रसोई का संतों को सामान दिया । भंडारी एक पेड़ के नीचे खीर बना रहा था । ऊपर से काला सांप खीर के कढाह में गिर गया । भंडारी को यह पता नहीं चला । उसी पेड़ पर एक सालेरी(गिलहरी) यह देख रही थी । गिलहरी ने सोचा, ‘संत खीर खाएँगे, तो सब मर जायेंगे, इन संतों की जान किस प्रकार से बचाऊँ ?” 
जब संत लोगों ने जीमने को पंगत लगाई, तब उनके देखते - देखते ही सालेरी खीर के कढाह में कूद गई । संत लोग कहने लगे, अब तो यह खीर अपने काम की नहीं है । इसको जमीन में गिरा दो, कोई पशु खा लेंगे । ज्यों ही खीर को जमीन में गिराया, तो काला नाग कढाह के पैंदे में निकला । संत लोगों ने विचार किया कि इस सालेरी ने हमारी जान बचाई है । 
तब सभी संतों ने उसको वरदान दिया कि जा, तेरे को ऐसा पति मिलेगा, जिसे राम के बिना कोई नहीं मार सकेगा । उन संतों के वरदान से वह सालेरी एक राज - कन्या बनी । फिर वह वैराग्य को प्राप्त होकर तप करने चली गई । जिस जंगल में ऋषि - मुनि रहते थे, वहीं वह रहने लगी और ऋषि - मुनियों की सेवा करती । 
जहाँ ऋषि - मुनि रहते थे, वह जंगल बालि के कब्जे में था । बालि ऋषियों की देख - रेख किया करते थे, अर्थात् राक्षसों से रक्षा किया करते थे । एक रोज एक मुनि ने स्वप्न - दोष के कारण अपनी कोपीन उतार कर रख दी और फिऱ दूसरी कोपीन धारण कर ली । वह कोपीन वैसे ही पड़ी रही । 
सवेरे स्नान करके पूजा में बैठ गये । कोपीन धोना भूल गये । जब पूजा से उठे, इस लड़की ने आकर नमस्कार किया । आपने कहा ~ यह कोपीन धो ला ।” लड़की ने कोपीन धोई । दाग न छूटा तो, दातों से पकड़ कर दाग छुड़ाने लगी । फिर कोपीन ला कर सुखा दी । लड़की को हमल रह गया । कुछ दिनों में ऋषियों को बड़ी भारी चिन्ता हो गई कि हे विधाता ! यह क्या हुआ ? अब तो यह लड़की हमारे पास रहने के लायक नहीं । किसी के साथ इसको कर दें । हमारी रक्षा बालि करता है, बालि को ही दे दें, तो यह राज - रानी होगी । 
इतने में मयदानव आ गया । कहने लगा ~ लाओ, टैक्स दो, तुम रावण के राज में रहते हो । ऋषियों ने कहा ~ हमारे पास कर देने को कुछ भी नहीं है । इतने में वह राज - कन्या आ गई । मयदानव बोला ~ “यह कौन है ?” ऋषि ~ राज - कन्या है । बोला ~ मैं इसे ले जाऊंगा । ऋषियों ने कहा कि तुम ले जाओ । वह उस राज - कन्या को लेकर लंका की ओर चला । पीछे से बालि आ गया । 
ऋषि लोग बोले ~ बालि ! तुम्हारे लिए, हमने बहुत अच्छी चीज रखी थी, परन्तु वह मयदानव अभी ले गया । बालि ने तुरन्त मयदानव को रास्ते में घेर लिया और उस लड़की का हाथ पकड़ लिया । एक हाथ मयदानव ने पकड़ लिया । बालि ने कहा ~ “मेरी चीज है, मेरे लिये रखी थी ऋषियों ने ।” मयदानव ~ “मैं कर में लाया हूँ, इसको ।” दोनों आपस में उसको खींचने लगे । ब्रह्मा जी ने यह देखकर संकल्प किया कि एक की दो हो जाओ । दो बन गई । बीच में अंगद पैदा हो गया । 
बालि जबरदस्त था, इसलिए वह उस लड़की को और अंगद को, दोनों को ले आया । वही बालि की रानी तारा कहलाई और उस पुत्र का नाम अंगद पड़ा । दूसरी मयदानव ले गया, जो ब्रह्मा के मन से पैदा हुई, इसलिये उसका नाम मन्दोदरी पड़ा । मयदानव वृद्ध था । उसने उसको पुत्री मानकर रावण के साथ उसकी शादी कर दी और पुष्पक - विमान जो कुबेर को जीत कर मयदानव लाया था, वह उसको दहेज में रावण को दे दिया । वही सालेरी संतों के वरदान से लंकापति को प्राप्त हुई और उस लंकापति की मृत्यु राम के द्वारा हुई । जो संत परमात्मा के साथ में भक्ति रूपी खेल खेलते हैं, उन पर सालेरी ने अपने आप को न्यौछावर कर दिया ।
*भ्रम विध्वंसण* 
*दादू लीला राजा राम की, खेलैं सब ही संत ।* 
*आपा पर एकै भया, छूटी सबै भरंत ॥७७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! राजा तो राम जी हैं और उनके सच्चे भक्तसंत, राम की लीला कहिए, भक्ति रूपी खेल, भेद - भाव, ऊँच - नीच छोड़कर, भक्ति भाव द्वारा ब्रह्म - भावना होने पर अपना - पराया का भेद - भाव और कर्त्तव्य आदिक की भावना त्यागकर, ‘एकै भये’, अर्थात् ऐसे ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मरूप ही होते हैं । इसलिये संतों को सर्वत्र एक आत्म - भाव ही भासता है ॥७७॥
गंज अटूट टूटै नहीं, ढोवत हारे बैल । 
‘राधो’ सब धनि धनिं करैं, देह धरी हरि गैल ॥ 
द्वैत भाव दुविधा मिटी, सुखी भये सब संत । 
टौंक महोच्छव कारणैं, दादू भये अनंत ॥ 
टौंक पधारे महोरच्छवै, आप लगायो भोग । 
तब सिष पूछी जब कही, या साखी इहि जोग ॥ 
प्रसंग ~ टौंक में माधोकाणी नाम के एक वैरागी निष्पक्ष संत रहते थे । उन्होंने अपने गुरु का भंडारा किया । ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज को स्वयं जाकर, भंडारे में पधारने को आमंत्रित किया । उनका प्रेम देखकर महाराज ने स्वीकार कर लिया । जब महाराज टौंक पधारे, तो माधोकाणी ने ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज की गाजे - बाजे से आगवानी करी । उस भंडारे में जितनी रसोई बनी थी, उससे कई गुना ज्यादा जीमने वाले संत - भक्त आ गये । 
माधोकाणी को चिन्ता हुई कि अब इसमें कैसे पूरा होगा ? तब वे वैरागियों के बड़े - बड़े महन्तों के पास गये, जो भंडारे में आये हुए थे और बोले ~ इसी सामान में पूर्ति हो जाये, ऐसी दया करो । वैरागी बोले ~ तुम दादूदयाल जी को ईश्‍वर मानते हो, उनके ही पास जाओ । तब माधोकाणी ने ब्रह्मऋषि के पास आकर प्रणाम किया । उपरोक्त सब वृत्तान्त सुना दिया । ब्रह्मऋषि बोले ~ ‘राम जी, चिन्ता नहीं करना । आप जैसे सच्चे निष्पक्ष संतों के सब काम रामजी पूरा करेंगे । 
परम गुरुदेव भंडारा में पधारे और आप ने भगवान् के भोग लगाया और पड़दा डाल दिया । राम जी ने अटूट रिद्धि कर दी । वह भंडारा सात दिन तक अखण्ड चला । इस लीला को देखकर सब चकित हो गये । सब लोगों ने फिर कहा कि दादूदयाल ऐसे महापुरुष हैं तो इस मेले में सबको अपने हाथ से प्रसाद दें । तब ब्रह्मऋषि ने काली मिर्च और लौंग का एक मुट्ठा भरा और यह संकल्प किया कि “हे राम जी ! सबकी इच्छा पूर्ति आप ही करते हो,” यह कहकर, लोंग काली मिर्च का मुट्ठा, हाथ घूमाकर मेले में फैंका । सभी मनुष्यों को यह भान हुआ कि दादूदयाल मानो, मेरे पास ही खड़े, मुझे प्रसाद दे रहे हैं । 
इस प्रकार माधोकाणी के सब काम राम जी ने पूरे किये । जब ब्रह्मऋषि के शिष्यों ने प्रश्‍न किया कि गुरूदेव ! ये आपने माधोकाणी के सब काम पूरे किस लिये किए ? वह तो वैरागी साधु थे । तब शिष्यों को उपरोक्त साखी से उपदेश किया कि जो आपा अभिमान से रहित, मत - मतान्तरों के पक्ष से अलग निष्पक्ष होकर, परमेश्‍वर की भक्ति करते हैं, वे सभी संत एक रूप हैं, उनमें मैं - तू का भेद - भाव नहीं होता । वही सच्चे राम के भक्त हैं । इसलिये हमने राम जी की आज्ञा से उनका काम पूरा किया । 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें