सोमवार, 27 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(६९/७१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*दादू साधु संगति पाइये, राम अमीफल होइ ।*
*संसारी संगति पाइये, विषफल देवै सोइ ॥६९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओ ! जब सच्चे संत भक्तों का संग प्राप्त होता है, तो उनके सत्संग में अमृतफल रूप राम की प्राप्ति होती है । फिर राम का स्मरण करके जीवन्मुक्त हो जाता है । जब अज्ञानी संसारी, विषयी पामरों की संगति प्राप्त होवें, तो वह जहर का फल, विषय - वासना में आसक्ति उत्पन्न करते हैं । जिसका उपभोग करके फिर जन्म - मरण को प्राप्त होते हैं ॥६९॥ 
हरिभक्ति पराण्याहु संगिनां संगमात्रतः । 
मुच्यते सर्वपापेभ्यो महापातकवानपि ॥ 
कवित्त 
कुमति निकंद होइ महा मोह मद खोइ, 
जग में सुजसं होइ, विवेक जगै हीये सूं । 
नीति को दिढाव होइ, विनय को बढाव होइ, 
उपजे उछाव ज्यों प्रधान पद लीये सूं ॥ 
धर्म को प्रकास होइ, कुगति को नास होइ, 
बरतै समाधि ज्यों पीयूष रस पीये सूं । 
तोष परिपूर्ण होइ दोष दृष्टि दूर होइ, 
एते गुण होइ सत - संगति के कीये सूं ॥ 
*दादू सभा संत की, सुमति उपजै आइ ।* 
*शाक्त की सभा बैसतां, ज्ञान काया तैं जाइ ॥७०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे भक्त संतों की सभा में सुन्दर वृत्ति उत्पन्न होती है, जिसके द्वारा राम - नाम का स्मरण रूप अमृत प्राप्त होता है । ‘शाक्त’ कहिए - संसारी, विषयी, पामर, अज्ञानियों की सभा में अर्थात् ऐसे माया - मोह में आसक्ति वाले पुरुषों की संगति से परमेश्‍वर की भाव - भक्ति में अन्तर पड़ता है और जन्म - मरण को प्राप्त होता है तथा अन्तःकरण में जो सुसंगति से ज्ञान हुआ था, वह सब लोप हो जाता है ॥७०॥ 
*जग जन विपरीत* 
*दादू सब जग दीसै एकला, सेवक स्वामी दोइ ।* 
*जगत दुहागी राम बिन, साधु सुहागी सोइ ॥७१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सारा जगत् राम से विमुखी, कृतघ्नी, अकेले ही जन्म - मरण में आते - जाते दिखाई पड़ते हैं और परमात्मा के सच्चे सेवक और परमेश्‍वर वे दो हैं, ऐसे सेवक संत, परमात्मा का दर्शनरूपी सुहाग प्राप्त करते हैं और जगत के प्राणी राम से अलग रहकर दुहाग का दुःख भोगते हैं ॥७१॥ 
(क्रमशः)

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