सोमवार, 27 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(७२/७४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*दादू साधु जन सुखिया भये, दुनिया को बहु द्वन्द्व ।*
*दुनी दुखी हम देखतां, साधुन सदा आनन्द ॥७२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर के सच्चे संत, स्वस्वरूप में स्थिर होकर, पूर्ण आनन्दमय हैं । ‘दुनिया’ कहिये - परमेश्‍वर से विमुखी जीव, अज्ञानी जन, अनन्त आशारूप फाँसी में बन्धकर, अति दुखी रहते हैं ॥७२॥ 
देखि मातली हरख में, ताको पूछी साध । 
तूं सुखियारी डोकरी, मोकौं दुःख अगाध ॥ 
दृष्टान्त ~ एक बुढ़िया दूसरी स्त्री से हँसकर बातें कर रही थी । एक संत भी आ गये । उन्होंने मन में विचार किया कि यह माई तो बहुत सुखी है । तब बोले ~ माता ! आप तो बहुत सुखी हो, हँस - हँस कर बातों का रस पी रही हो । यह सुनते ही बुढ़िया तत्काल रोने लगी और बोली ~ बेटी की बेटी रही, बालक बिना जु आप । सो दुःख हमको रैन दिन, ये ही बड़ो संताप ॥ “महाराज ! मुझे सुख कहाँ है ? मेरे पास तो दुःख ही दुःख है । अपने कुनबे का दुःख कहने लगी । मैं इन सबसे बहुत दुखी हूँ ।” महात्मा सुनकर ठंडे हो गये कि अभी तो हँस रही थी, अभी रोने लग गई । सारी दुनियोँ में ही रोना पड़ा है, इससे तो हम ही ठीक हैं । “दादू साधु जन सुखिया भये ।” 
*दादू देखत हम सुखी, सांई के संग लाग ।* 
*यों सो सुखिया होयगा, जाके पूरे भाग ॥७३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ‘हम’ कहिए, मुक्तजन, परमेश्‍वर का साक्षात्कार करके, परमेश्‍वर में लय लगा कर ब्रह्मरूप होते हैं । परन्तु ऐसे सुखी वही संतजन होंगे, जिन पर परमेश्‍वर और सतगुरु की पूर्ण कृपा है ॥७३॥ 
*दादू मीठा पीवै राम रस, सो भी मीठा होइ ।* 
*सहजैं कड़वा मिट गया, दादू निर्विष सोइ ॥७४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! इस संसार में मीठा तो एक राम - रस ही है । जो राम का नाम - स्मरण, भक्ति - ज्ञान रूप अमृत को पीता है, वह राम - रूप ही हो जाता है । उसके अन्तःकरण से ‘सहज’ कहिए स्वभाव से ही कड़वापन यानी सम्पूर्ण गुण - विकार निवृत्त हो गये । वही संसार - भाव से मुक्त हुआ है ॥७४॥ 
(क्रमशः)

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