शुक्रवार, 3 मई 2013

= साँच का अंग १३ =(१५७/१५९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन नांहि ।*
*दादू निर्बंध छाड़ कर, बंध्या द्वै पख मांहि ॥१५७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब तक सत्य - मार्ग नहीं दिखाई पड़ता, तब तक ज्ञान - विचार रूपी नेत्रों से हीन हैऔर ‘निर्बंध’ कहिए - माया विकारों से रहित, सच्चिदानन्द परमेश्‍वर को त्याग कर ‘द्वैपक्ष’ कहिए, हिन्दू - मुसलमान, कर्ता - भोक्ता, ऊंच - नीच, पाप - पुण्य आदिक पक्षों में यह जीवात्मा बंधा रहता है ॥१५७॥ 
*एक साच सौं गहगही, जीवन मरण निबाहि ।* 
*दादू दुखिया राम बिन, भावै तीधर जाहि ॥१५८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ‘एक सांच’ कहिए - अद्वितीय ब्रह्म का निश्‍चय करके उसमें ही अभेद होइये और मुक्तजन होकर स्वयं भी सत्य को ग्रहण करते हैं तथा मुमुक्षुओं को भी सत्य - मार्ग में प्रवृत्त कराते हैं । प्रथम तो चितावणी पक्ष में, साधकों को जन्म से मरण पर्यन्त सत्य का व्रत ही पालना चाहिए, अर्थात् जो सत्य को ग्रहण करता है, उसको जन्म - मरण प्राप्त नहीं होता है । और जो संसारीजन सत्य - मार्ग से विमुख हैं, वे अन्य सकाम कर्म रूपी साधन अपनाते हुए, जन्म - मरण आदि क्लेश को ही प्राप्त होते हैं ॥१५८॥ 
*चितावणी* 
*दादू छानै छानै कीजिये, चौड़े प्रगट होइ ।* 
*दादू पैस पयाल में, बुरा करे जनि कोइ ॥१५९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मन में स्फुरणा फुरते ही पाप - वासना प्रकट हो जाती है । क्योंकि निरंजनदेव परमेश्‍वर सर्वज्ञ है । जिससे ‘छानै छानै’ कहिए - सूक्ष्म कर्त्तव्य भी प्रभु से छिपे नहीं हैं । इसलिये प्रभु की सर्वज्ञता का अनुभव करके जिज्ञासु को ब्रह्माकार वृत्ति में ही स्थिर रहना चाहिये । अथवा “छानै छानै” कहिए - कायिक, वाचिक, मानसिक क्रिया से किसी का भी बुरा नहीं करना अर्थात् पाप नहीं करना । यदि छिपा - छिपा कर भी बुरा करेंगे, एक रोज अवश्य जनसमुदाय के सामने आ जायेगा । इसलिये ब्रह्मऋषि सतगुरु देव कहते हैं कि हे साधक ! किसी का भी बुरा पाताल में, कहिए गुप्त रूप से भी नहीं करना । यदि करेगा तो अवश्य प्रगट हो जाएगा ॥१५९॥ 
पवन कहै पानी कहै, धरती बोलै बैन । 
चन्द्र सूर दोऊ कहैं, पाप छिपै क्यौं ‘चैन’ ॥ 
पुत्री पर संकल्प कियो, नृप को बाज्यो ढोल । 
फिर समझ्यो सोभा भई, सब जग सुलटो बोल ॥ 
दृष्टान्त ~ एक राजा थे । उसकी लड़की बहुत सुन्दर थी । शादी के योग्य हो गई । राजा के मन में पाप - वासना जागृत हुई और सोचा कि अपनी लड़की को पाल - पोष कर बड़ी करके दूसरे पुरुष के साथ शादी कर देते हैं । इसकी अपेक्षा अपने साथ ही शादी कर लें, तो क्या बुरा है ? तब राजा एक रोज दरबार में मंत्रियों के सामने बोले कि अपनी उत्पन्न की हुई वस्तु का आप ही उसका उपयोग कर लें, तो इसमें क्या आपत्ति है ? 
मंत्रियों ने जान लिया कि राजा की दृष्टि मलिन - पापमय हो चुकी है । अपनी लड़की के साथ शादी करने को राजा तत्पर है, यह भंयकर अन्याय और पाप है । मन्त्रियों ने उसका समर्थन नहीं किया और बोले ~ “सभी वस्तुएँ अपने उपयोग में लाने योग्य नहीं होतीं ।” राजा के मानसिक पाप का सम्पूर्ण प्रजा में ढोल बज गया अर्थात् राजा बुरा, अन्यायी, अधर्मी और पापी है, जो अपनी कन्या के साथ आप शादी करना चाहता है । 
कुछ दिन में मन्त्रियों ने राजा को कहा कि राजन् ! आपकी प्रजा में यह शोरगुल हो रहा है कि राजा अपनी कन्या के साथ शादी करना चाहता है । यह कहाँ तक ठीक है ? राजा लज्जित हो गया और मन में विचार किया कि मैंने शादी करने का विचार ही किया था और किसी को कहा भी नहीं, फिर भी मेरे मन का पाप सर्वत्र बोल उठा । इसलिए अब इस विचार को आज ही मैंने त्याग दिया । 
ईश्‍वर की सत्ता का राजा ने अनुभव किया कि ईश्‍वर तो सर्वत्र देखता है, सबके घट की अच्छी बुरी जानता है । फिऱ राजा ने आम खास दरबार लगाया और बोला ~ “कोई भी धर्म - मर्यादा का उल्लंघन करके अर्थात् अपनी लड़की के साथ शादी करेगा, तो उसको फाँसी की सजा होगी ।” सुनते ही प्रजा में राजा के प्रति भाव जाग्रत हो गया कि राजा बड़े धर्म - निष्ठ हैं, बड़े नीतिज्ञ हैं । जो राजा का मानसिक पाप था, वह सम्पूर्ण धुल गया । 
(क्रमशः)

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