॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= साधु का अंग १५ =*
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*साधु पारख लक्षण*
*गरथ न बांधै गांठड़ी, नहीं नारी सौं नेह ।*
*मन इंद्री सुस्थिर करै, छाड़ सकल गुण देह ॥८७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! धन को ऐसे संचित न करे, जो न खावे और न खाने दे, और जमा करता रहे । नारी से नारीभाव करके प्रीति नहीं करे और अपने मन इन्द्रियों को अपनी आत्मा में स्थिर करके शरीर के सम्पूर्ण गुण विकारों का त्याग करे, वही उत्तम पुरुष है ॥८७॥
गल में पहरै गूदड़ी, गांठि न बांधै दाम ।
शेख भावदी, यों कहै, तिसको करूँ सलाम ॥
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*निराकार सौं मिल रहै, अखंड भक्ति कर लेह ।*
*दादू क्यों कर पाइये, उन चरणों की खेह ॥८८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो मुक्त - पुरुष निराकार की अखंड उपासना में मग्न रहते हैं, ऐसे संतों के चरणों की रज भाग्य से ही प्राप्त होती है और उनकी वाणी तथा क्रिया की दृष्टि, रहन - सहन आदि मुमुक्षुओं को परम सौभाग्य से ही प्राप्त होवे हैं, तब वह जीव व्यवहार में दक्ष होता है ॥८८॥
निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शिनम् ।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूर्तस्तस्यांध्रिरेणुभिः ॥
सन्त एक ने हठ किया, प्रति दिन गंगा न्हाय ।
अथवा कालिन्दी न्हान करै, उसी के भोजन पाय ॥
गंगा आदिक तीर्थ भी, संतन के ढिग जाय ।
सन्त कुटी के सामने, लेट गई दो गाय ॥
दृष्टान्त ~ एक वैरागी सन्त ने हठ किया कि वह उसी सन्त भक्त के यहाँ भोजन करेंगे, जो नित्य गंगा या यमुना स्नान करता हो । सन्त का यह व्रत निरन्तर तीन वर्ष तक निभता रहा । एक दिन वह वैरागी सन्त घूमते हुए गंगा - तट से कुछ दूर स्थित एक आश्रम में पहुँचे । आश्रमवासी सन्त ने उनका आदर सत्कार किया और भोजन करने का आग्रह किया, जिसे वैरागी सन्त ने यह विचार कर स्वीकार कर लिया कि गंगा के पास में आश्रम होने से यहाँ के सन्त तो प्रतिदिन ही गंगा - स्नान करते होगें । भोजन से निवृत्त होने के बाद उन्होंने आश्रमवासी सन्त से पूछ ही लिया कि आप तो कम से कम एक बार तो गंगा - स्नान कर ही लेते होंगे ?
आश्रमवासी सन्त ने कहा - “हम तो कभी गंगा - स्नान करने नहीं जाते । हम तो राम - नाम की गंगा में स्नान करते है ।” यह सुनते ही वैरागी साधु का मन खिन्न हो उठा । रात को नींद नहीं आयी । अर्ध रात्रि पश्चात् उन्होंने काली और पीली रंग की दो गायों को आश्रम के द्वार पर मिट्टी में लौट कर स्नान करते देखा । उसके बाद इन दोनों का श्वेत - धवल रंग हो गया । वे दोनों आश्रम को शीश नमाकर चली गईं । प्रातःकाल सन्त ने बताया कि काली रंग की यमुना और पीली रंग की गंगा गौ रूप में संतों की चरण रज का स्पर्श करने आयी थी । सन्त - रज का स्पर्श पाकर वे निर्मल हो गई थीं । ऐसा है राम - नाम का प्रभाव ।
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*समाचार सत पीव का, कोइ साधु कहेगा आइ ।*
*दादू शीतल आत्मा, सुख में रहे समाइ ॥८९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर प्राप्ति के सत्य समाचार अर्थात् साधन, आत्म उपदेश, कोई बिरले संत ही कहते हैं । उनके श्रवण से अन्तःकरण, निदिध्यास द्वारा, आत्मा आनन्द रूप सुख में ही लीन रहता है ॥८९॥
(क्रमशः)
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