बुधवार, 29 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(८४/८६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*जिहिं घट प्रकट राम है, सो घट तज्या न जाइ ।* 
*नैनहुँ मांही राखिये, दादू आप नशाइ ॥८४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिन सच्चे संत भक्तों के हृदय में निर्गुण ब्रह्म आत्म - स्वरूप से प्रकट हो रहे हैं, उनको अपने नेत्रों में धारण करिये । उनकी शऱण नहीं त्यागिये और अपने आपा कहिए, अनात्म - अहंकार का त्याग करके, उन संतों की दया से जो ब्रह्मस्वरूप साक्षात्कार होवे, उस आनन्द को अन्तःकरण में राखिये, जरणा करिए, अहंकार भाव से प्रकट नहीं करना ॥८४॥
साहिब को देखै सदा, प्रगट घट घट माहिं । 
ताको कैसे त्यागिये, सो ही है सब माहिं ॥
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*जिहिं घट दीपक राम का, तिहिं घट तिमिर न होइ ।*
*उस उजियारे ज्योति के, सब जग देखै सोइ ॥८५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिन सच्चे मुक्त पुरुषों के हृदय में, निर्गुण राम रूप दीपक, आत्म - स्वरूप से प्रगट है, उनके अन्तःकरण में तमोगुण का लेशमात्र भी विकार नहीं रहता है । ज्ञानरूप ज्योति के उजियारे में, वे सब जगत को ब्रह्ममय देखते हैं ॥८५॥
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*साधु अबिहड़*
*कबहुँ न बिहड़ै सो भला, साधु दिढ मति होइ ।*
*दादू हीरा एक रस, बॉंध गॉंठड़ी सोइ ॥८६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो मुक्त पुरुष अपनी वृत्ति को, आत्म - स्वरूप से फिर अनात्माकार न होने दे, वह साधक दृढ़मति है । हीरा रूपी ब्रह्म अभ्यास को एक रस कहिए, धारण करके रहे, अर्थात् ऐसे साधक ही जीवन - मुक्त कहे जाते हैं ॥८६॥
सन्त रखै उर में सदा, एक ब्रह्म मणि नूर । 
जिज्ञासु राखै सदा, गुरु उर हिरदै पूर ॥
(क्रमशः)

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