शुक्रवार, 31 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(९३/९५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*साहिब का उनहार सब, सेवक मांही होइ ।*
*दादू सेवक साधु को, दूजा नांही कोइ ॥९३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत राम के सेवक, मुक्त - पुरुष, निर्गुण, निर्विकल्प स्वरूप और शील कहिए ब्रह्मचर्य, जरणा, कोमलता, सरलता आदि स्वभाव, ये परमेश्‍वर के गुण मुक्त - पुरुषों में स्वभाव से ही प्रकट रहते हैं । ऐसे सेवक - स्वामी, परमेश्‍वर रूप होकर, फिर वे परमेश्‍वर की ही महिमा गाते हैं । ऐसी स्थिति में सेवक स्वामी में कोई भेदभाव नहीं रहता है ॥९३॥
मारवाड़ में कोई नृप, बांट्यो सब को धान । 
तासूं इक चारण कही, नर नारी सुत जान ॥
दृष्टान्त ~ मारवाड़ में एक राजा ने नगर में सभी गरीबों को धान खाने के लिये बँटवाया । एक चारण कवि धान लेने नहीं आये । तब राजा राजकुमार को बोले ~ एक बैलगाड़ी धान की भरके उनके घर तुम डाल आओ । राजकुमार ने धान की बैलगाड़ी भरकर चारण के घर डाल दी और बोले ~ ‘‘धान पिता जी ने दिया है और बैलगाड़ी मैं अपनी तरफ से दान करता हूँ, तब बारैठ जी बोले ~ 
पंगा जतेहि पाण, पुण्य पाणी पहलै पीवै । 
पंगु जतेहि पाण, पीयो चाहै मालवणी ॥
बेटो बाप तणा हि, चीलां जे चालै नहीं । 
जननी ताही जणाहि, बुरी कहावै बैरीसल ॥
धन्य हो ! जो धर्मनिष्ठ बाप और मां, उनकी रहणी - सहणी पुत्र में होवे, वही पुत्र धन्य है । और जो बाप के आचरण रूपी लीक पर पुत्र नहीं चले तो बैरीसल जी कहते हैं कि उसकी जननी कहिये, माता जन्म देकर बुरी कहलाती है ।
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*दादू जब लग नैन न देखिये, साध कहैं ते अंग ।*
*तब लग क्यों कर मानिये, साहिब का प्रसंग ॥९४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब तक अपने अन्तःकरण में मुक्त - पुरुष के ब्रह्म - प्राप्ति के साधन जो विवेक, वैराग्य आदि बतलाते हैं, वे तुम अपने विचार रूपी नेत्रों से नहीं देख लो, तब तक परमात्मा का अपने आपको साक्षात्कार हुआ है, यह नहीं मानना ॥९४॥
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*दादू सोइ जन साधु सिद्ध सो, सोइ सकल सिरमौर ।*
*जिहिं के हिरदै हरि बसै, दूजा नाहीं और ॥९५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सोई तो भक्त है, सोई साधु है और वही सिद्ध और सत्यवादी है, वही सच्चा शूरवीर है, जिसने मन इन्द्रियों को निग्रह करके अन्तःकरण में परमेश्‍वर की लय लगाई है और उसमें फिर किंचित् भी द्वैत - भाव नहीं आता । ऐसे संत सर्व - शिरोमणि हैं ॥९५॥
(क्रमशः)

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