शुक्रवार, 31 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(९६/९८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*दादू अवगुण छाड़ै गुण गहै, सोई शिरोमणि साध ।*
*गुण औगुण तैं रहित है, सो निज ब्रह्म अगाध ॥९६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत, सांसारिक अज्ञानी जीवों अवगुण दुर्गुणों का त्याग करते हैं और उनके गुणों को सारग्राही दृष्टि से लेते हैं, ऐसे संत ही मानव - समाज में सबके शिरोमणि आदर्शनीय हैं । गुण और अवगुण दोनों से मुक्त हो गये,वे तो ब्रह्म की ही मूर्ति हैं ॥९६॥ 
सारग्राही पक्ष में, जो पुरुष, काम - क्रोध आदिक अवगुणों का त्याग कर, निर्विषय होकर, सत्य, संतोष, श्रद्धा आदि सद्गुणों को धारें, वेही शिरोमणि साधु हैं और जो भाग्यशाली गुणातीत स्वस्वरूप में मग्न रहते हैं, वे तो ब्रह्म ही हैं, उनकी तो अपार महिमा है ।
इक अवगुण इक गुण गहै, उभै भाव संसार । 
बहुछिद्री(चलनी) अरु सूप ज्यूं, ‘जगन्नाथ’ त्यौहार ॥ 
रोम रोम चक्षु गुणन को, औगुण लोचन अंध । 
स्वाति बूंद से काम है, पर्यौ रहो जल सिंध ॥ 
गुण ग्राही एक नृप हो, औगुण लेतो नांहि । 
मरे स्वान को देखकर, दांत सराये ताहि ॥ 
दृष्टान्त ~ एक राजा थे । वह संतों की सेवा और सत्संग किया करते थे । एक संत बोले ~ राजन् ! तुम सब जीवों में से गुण ले लिया करो, उसके औगुण उसमें ही छोड़ दिया करो । फिर राजा सबमें से गुण ही लेता, कोई दोष होता तो वह उसी में छोड़ देता । एक रोज मंत्री राजा की परीक्षा करने को नगर के बाहर, जिधर एक कुत्ता मरा सड़ रहा था, राजा को उधर से ले गया । 
मंत्री ने कुत्ते की दुर्गन्धि से अपना नाक बन्द कर लिया और बोला ~ राजन् ! इसने पहले जन्म में न मालूम, कौनसे कुकर्म किये थे, जिससे कुत्ता बना और फिर कुत्ता बनकर भी इसने सबको तकलीफ ही पहुँचाई, और अब मरकर भी सबको दुर्गन्धि से दुःख ही देता है । राजा बोले ~ मंत्री ! यद्यपि यह सत्य है, तथापि इसके दांत देखो, मरे हुए के भी कैसे सुन्दर दिखते हैं । मंत्री राजा के चरणों में नत - मस्तक हो गया । राजा बोले ~ मंत्री ! संसार गुण अवगुण से भरा हुआ है । सारग्राही पुरुष इसमें गुण ही लेते हैं । 
*जग जन विपरीत* 
*दादू सैन्धव फटिक पाषाण का, ऊपर एकै रंग ।* 
*पानी मांहैं देखिये, न्यारा न्यारा अंग ॥९७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे भक्त - संत, सैंधव नमक के समान आपा रहित होते हैं । जैसे सैंधव पानी में एक रूप हो जाता है, वैसे ही निष्कामी भक्त भी परमेश्‍वर का नाम - स्मरण करते - करते परमेश्‍वर रूप हो जाते हैं । और बिलौरी पत्थर सैंधव के समान चमकीला है, परन्तु जल में पड़ा हुआ भी कभी जलरूप नहीं होता है । ऐसे ही अज्ञानी संसारीजन ऊपर से तो सज्जन दिखलाई पड़ते हैं, परन्तु नाना प्रकार के आपा अहंकार से युक्त रहते हैं । वे सत्संग रूपी जल में चाहे कितने ही रहें, परन्तु परमेश्‍वर के साथ वे एक रूप नहीं होते, जन्म - मरण में ही जाते हैं ॥९७॥ 
*दादू सैंधव के आपा नहीं, नीर खीर परसंग ।* 
*आपा फटिक पाषाण के, मिलै न जल के संग ॥९८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सैंधव आपा रहित है और जल भी आपा रहित है । दूध में जल गिरते ही दूध अपना रूप उसे दे देता है, ऐसे ही सैंधव जल रूप हो जाता है । परन्तु चमकीला पत्थर आपा सहित कठोर है । वह जल के साथ अभेद नहीं होता । इसी प्रकार सच्चे संत अनात्म, आपा रहित, परमेश्‍वर में अभेद हो जाते हैं और अज्ञानी संसारीजन आपा सहित राम - राम करते हुए भी जन्म - मरण में जाते हैं ॥९८॥ 
(क्रमशः)

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