॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= साँच का अंग १३ =*
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*अनकिया लागै नहीं, किया लागै आइ ।*
*साहिब के दर न्याय है, जे कुछ राम रजाइ ॥१६०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अनकिये कर्म का फल तो लगता है नहीं, और कर्त्ता बुद्धि से निषिद्ध कर्मों का अथवा शुभ सकाम कर्मों, इनका फल पाप - पुण्य अवश्य लगता है । क्योंकि परमेश्वर के दरबार में न्याय है और परमेश्वर सर्व कर्त्तव्यों में अलिप्त है तथा साक्षी - भाव से स्वयं प्रत्यक्ष जानते हैं । इसलिए किया अनकिया कर्म परमेश्वर से छिपा नहीं है । जो भी कर्म करो, वह निष्काम भाव से राम की प्रसन्नता के लिए करो । इसी में मनुष्य - जन्म की सफलता है ॥१६०॥
इक कावड़िया विप्र के, काटे हाथ कुमार ।
पुनि जन तस्कर बीस को, पाडा बीस हिं मार ॥
दृष्टांत - १ - एक ब्राह्मण हरिद्वार से कावड़ लेकर जा रहा था । रात्रि को नदी के किनारे सो गया । उसी रात एक चोर राजमहल से रत्नमाला चुराकर लाया । उसने उसे कांच की माला समझकर सोते हुए कावड़िये के गले में डाल दी । कावड़िये के गले में राजा की रत्नमाला देखकर राजपुरुषों ने कावड़िये को पकड़ लिया और चोरी के अपराध में उसके दोनों हाथ काट दिए । उसने भगवान् से प्रार्थना की कि प्रभो ! मुझे किस अपराध के कारण यह दंड मिला ? तभी आकाशवाणी हुई - तुम्हारे गले में माला डालने वाले की गाय को एक कसाई चुराकर ले जा रहा था । रास्ते में गाय छुड़ाकर एक गलियारे में होकर घर की ओर भागी । उसका पीछा करते हुए कसाई ने आवाज लगाई - गाय को रोको । सामने आते हुए तुम दोनों हाथ फैलाकर खड़े हो गये । अतः गाय पकड़ी गई और कसाई द्वारा मारी गई । उसी कृत्य का दंड दोनों हाथों को भुगतना पड़ा है । “जैसा करै सो तैसा पावै ।”
दृष्टांत - २ - एक संत वन में कुटी बनाकर भजन करते थे । एक दिन बीस चोर राजा के महल से चोरी करके कुटी के पास के मार्ग से जा रहे थे । उन्होंने सोचा कि इस साधु ने हमको जाते हुए देख लिया है, यह राजपुरुषों को हमारा पता बता देगा । अतः हमें इसे मार देना चाहिए । वे बीसों चोर संत को मारने लगे । साधु ने भगवान् से प्रार्थना की कि मैं किसी को सताता नहीं हूँ, फिर ये मुझे क्यों मार रहे हैं ? तब आकाशवाणी हुई कि तुमने पूर्वजन्म में इनको मारा था क्योंकि ये पूर्व जन्म में पाडे थे और तुम कसाई थे । अतः यह तुम्हारे किए हुए कर्म का फल है । यह तो अच्छा हुआ कि भजन के प्रताप से एक ही जन्म में ये सब मिलकर तुमसे बदला ले रहे हैं अन्यथा तुम्हें कई जन्म में कर्मफल भोगना पड़ता ।
कवित्त
गूजर पूरब देह, पाडा मार्या बीस जेह,
तसकर भये तेह, आप भयो संत जू ।
कोउक नगर बाझ, रहे तहाँ कुटी साज,
तसकर आवें तहाँ धन ही बाटंत जू ॥
एक दि मत मतैं, कही हम तोहि हतै,
कह देत कित हम, चोरी ही करंत जू ।
जल मधि न्हाइ लेत, फिर तोहि मार देत,
जल में अरज करी, बोले भगवंत जू ॥
दोहा - लेते बदला सब जुवा, ल्या भेंट में बीस ।
चोर कहै बदलो तज्यो, मेट गुनाह जगदीस ॥
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*आत्मार्थी भेख*
*सोइ जन साधु सिद्ध सो, सोइ सतवादी शूर ।*
*सोइ मुनिवर दादू बड़े, सन्मुख रहणि हजूर ॥१६१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वही तो भक्तजन है, वही साधु है और वही सिद्ध है तथा वही सत्यवादी है, जो सत्कामी, सत् नेमी, सत् प्रेमी है और वही शूरवीर है, जो मन इन्द्रियों के विषयों का त्याग करता है । वही मुनि है, जिसके अन्तःकरण में प्रणव अर्थ का मनन होता है । वही मानव समाज में बड़े हैं, जो सत्कर्मों के द्वारा परमात्मा के सन्मुख रहते हैं अर्थात् परमेश्वर का नाम स्मरण करते हैं ॥१६१॥
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*सोइ जन साचे सो सती, सोइ साधक सुजान ।*
*सोइ ज्ञानी सोई पंडिता, जे राते भगवान ॥१६२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वही सच्चे हैं जो परमेश्वर के काल को याद करते हैं और वही सती है, जो अपने सत का त्याग नहीं करता । वही साधक है, जिसने परमेश्वर प्राप्ति के साधनों को अपना लिया है । वही चतुर है जो नित्य, अनित्य का विवेचन करता है । वही ज्ञानी है, जिसको अपना आत्म - स्वरूप अपरोक्ष हो गया है । वही पंडित है, जिसने अपने पिंड को अर्थात् शऱीर को निर्दोष बना लिया है और फिर भगवान् के नाम स्मरण में राते = रत्त और माते = मतवाले बना रहता है ॥१६२॥
(क्रमशः)
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