रविवार, 5 मई 2013

= साँच का अंग १३ =(१६६/१६८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= साँच का अंग १३ =*
*अधिकारी अनअधिकारी*
*बिच के सिर खाली करैं, पूरे सुख सन्तोष ।* 
*दादू सुध बुध आत्मा, ताहि न दीजे दोष ॥१६६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! “बिच के” कहिये - वाचक पंडित, नकली ज्ञानी, भेदवादी, संशयात्मा, ये सब लक्ष्य में स्थित नहीं होते हैं और व्यर्थ में अपना और दूसरों का सिर खपाते रहते हैं । “पूरे” जो अर्थात् अपरोक्ष आत्मज्ञानी हैं, वे स्वस्वरूप आनन्द ब्रह्म में ही सन्तुष्ट रहते हैं । ऐसे शुद्ध बुद्धि वाले पुरुषों को व्यवहार काल में दोष नहीं लगता है । वे कर्म - बन्धन में नहीं बँधते हैं ॥१६६॥ 
*सुध बुध सौं सुख पाइये, कै साधु विवेकी होइ ।* 
*दादू ये बिच के बुरे, दाधे रीगे सोइ ॥१६७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सतगुरु के उपदेश में स्थित उत्तम पुरुष ही ब्रह्मानन्द - सुख का अनुभव करते हैं, परन्तु ऐसे मुक्त - पुरुष बहुत कम होते हैं । उनके सत्संग में आनन्द स्वरूप प्राप्त होता है । और ये “वि चके” कहिए - भेदवादी, कुतर्की, जिनको पूरा आत्मबोध प्राप्त नहीं है, अनन्यमार्गी, माया प्रपंच से जले हुए रोगी रोते रहते हैं । मुमुक्षु को ऐसे पुरुषों का संग नहीं करना चाहिये ॥१६७॥ 
कवित्त 
कै तो भलो वीतराग, कामिनी कनक त्याग, 
कूबरी, कोपीन कंथ कमण्डल काठ को । 
कै तो भलो राज साज, सेना चतुरंगी संग, 
हाथी रथ सुखपाल, दल बल ठाठ को ॥ 
कै तो भलो दाता दान, कै तो भलो ज्ञानवान, 
कहत ‘बालकराम’ वचन निराट को । 
मानुष जनम पाय, कर्ता हू न जान्यो हाय, 
धोबी को सो कुत्तो जैसो घर को न घाट को ॥ 
*जनि कोई हरि नाम में, हमको हाना बाहि ।* 
*ताथैं तुमथैं डरत हूँ, क्यों ही टलै बला हि ॥१६८॥* 
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज अपने को उपलक्षण करके जीवों को उपदेश करते हैं और परमेश्‍वर का स्वरूप दर्शाते हैं कि हे दयामय परमेश्‍वर ! हमारी सुरति कहिये वृत्ति आपके हरि नाम में ही एक रस बनी रहे, और आप की अखंड भक्ति में कोई भी विघ्न नहीं आवे । हे नाथ ! हम माया - मोह में आपकी भक्ति से विमुख होकर गर्भ के कौल करार से नहीं चूक जावें । इस भय से ही आपको विनय करते हैं कि यह ‘बलाइ’= माया प्रपंच अथवा मिथ्यावादी, अज्ञानीजन, हमसे दूर ही रहें, ऐसी कृपा रखिये ॥१६८॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें