रविवार, 5 मई 2013

= साँच का अंग १३ =(१६९/१७१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*परमार्थी*
*जे हम छाड़ैं राम को, तो कौन गहेगा ?* 
*दादू हम नहिं उच्चरैं, तो कौन कहेगा ?।१६९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत महात्मा ही अगर सत्य - स्वरूप राम का त्याग कर दें अर्थात् स्मरण न करें, तो फिर कौन गहेगा अर्थात् कौन स्मरण करेगा ? और जो स्वयं तो सत्य - स्वरूप राम को ग्रहण करके रहें, परन्तु सत्य स्वरूप का उपदेश नहीं करें, तो जिज्ञासुओं के कल्याण के लिये सत्य स्वरूप राम का कौन उपदेश करेगा ? व्यवहार में संत ही केवल परमार्थी हैं । सत्य उपदेश भी देना संतों का ही कर्त्तव्य है ॥१६९॥ 
ज्ञानी ज्ञान न उच्चरैं, आपैं रहैं लुकाइ । 
तुलसी दुखिया जीव ये, शरण कौन की जाइ ॥ 
प्रसंग - गुरु दादू आमेर तैं, चले सीकरी जाइ । 
मार्ग चलतां शिष्यन को, तब या साखी सुनाइ ॥ 
दृष्टान्त ~ ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज आमेर से सीकरी, जब अकबर बादशाह को उपदेश करने जा रहे थे, मार्ग में शिष्यों ने महाराज से कहा ~ कि हे गुरुदेव ! आप तो स्वयं ही राम के रूप हो ? अब आप को राम - नाम करने की क्या आवश्यकता है ? गुरुदेव ने उपरोक्त साखी से उपदेश दिया कि हे भाई ! हम राम - नाम नहीं करेंगे, तो फिर आप लोग क्या करोगे ? महापुरुष अज्ञानी जीवों को सन्मार्ग पर लगाने के लिए आप खुद सत्कर्मों का आचरण करते हैं । 
*विरक्तता* 
*एक राम छाड़ै नहीं, छाड़ै सकल विकार ।*
*दूजा सहजैं होइ सब, दादू का मत सार ॥१७०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत पुरुष एक ब्रह्म स्वस्वरूप राम का स्मरण कभी नहीं छोड़ते । ऐसे संतजन एक परमेश्‍वर के नाम का स्मरण करते हैं और सर्व मायावी विकारों को त्याग देते हैं । दूजा व्यवहार और खान - पान, रहन - सहन, ये सब परमेश्‍वर की कृपा से ही स्वतः चलते रहते हैं ॥१७०॥ 
*जे तू चाहै राम को, तो एक मना आराध ।* 
*दादू दूजा दूर कर, मन इन्द्री कर साध ॥१७१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यदि परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहते हो तो, एक मन होकर परमेश्‍वर का ध्यान करो । दूजा तीर्थ, व्रत, देव - पूजा आदिक अन्य साधनों से उदासीन होकर मन इन्द्रियों को अन्तर्मुख करके चैतन्यमय बनाइये ॥१७१॥ 
एकै मत एकै दसा, हरि को बिड़द गहिये । 
नामदेव नाम जहाज है, भौसागर तिर जाइये ॥ 
(क्रमशः)

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