॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= भेष का अंग १४ =*
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*दादू सब देखैं अस्थूल को, यहु ऐसा आकार ।*
*सूक्ष्म सहज न सूझई, निराकार निरधार ॥३७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सब संसारीजन स्थूल स्वांग और आकार को ही देखते हैं, किन्तु परमेश्वर का सूक्ष्म - स्वरूप किसी को भी नहीं सूझता है, क्योंकि वह निराकार और निराधार है । अथवा व्यवहार में स्थूल आकार कहिए - पंच भौतिक शरीर तो, सच्चे संतों का और भेषधारियों का एकसा ही प्रतीत होता है । परन्तु जो ‘सहज’ कहिए - स्वभाव से ही निर्द्वन्द्व, सम्पूर्ण विकारों से जिनका अन्तःकरण रहित हो गया, उनकी वृत्ति निराकार, निराधार परमेश्वर में सूक्ष्म लय द्वारा स्थिर हो गई है, किसी भी बहिरंग पुरुष को भान नहीं होती है ॥३७॥
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*दादू बाहर का सब देखिये, भीतर लख्या न जाइ ।*
*बाहर दिखावा लोक का, भीतर राम दिखाइ ॥३८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! बाहर के वेशभूषा को तो सब संसारीजन देखते हैं, परन्तु बाहर के देखने वालों से भीतर की धारणा नहीं देखी जाती । भीतर की धारणा तो भगवान् ही देखते हैं, अर्थात् सच्चे संत भीतर की धारणा शील, संतोष, दया, धर्म, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि को भीतर राम को ही दिखाते हैं ॥३८॥
असाध साध की पारखा, क्यूं लहिये इहि लोइ ।
मनुष देह बानो उहै, सरभर बानो सोइ ॥
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*दादू यह परिख सराफी ऊपली, भीतर की यहु नाहिं ।*
*अन्तर की जानैं नहीं, तातैं खोटा खाहिं ॥३९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसार के अज्ञानी प्राणी ऊपर भेष - बाना की ‘सराफी’ नाम - पहचान करते हैं, परन्तु उन प्राणियों की कसौटी, सत्य असत्य की परीक्षा, बाहरी लोक दिखावे की है । स्वांग देखकर ही संसारी प्राणी रीझते हैं और अन्तःकरण की वार्ता को नहीं जानते हैं । इसी से संसारीजन सकाम कर्मों में भटकते हैं और दुःख पाते हैं ॥३९॥
छन्द ~
आसन मार संवार जटा नख,
उज्जवल अंग विभूति रमाई ।
यह हमकूँ कछु देई दया कर,
घेर रहे बहु लोग लुगाई ।
कोउक उत्तम भोजन ल्यावत,
कौउक ल्यावत पान मिठाई ।
सुन्दर लेकर जात भयो सब,
मूर्ख लोगन या सिद्धि पाई ॥
(क्रमशः)
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