शनिवार, 1 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(१०१/१०२)


॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= साधु का अंग १५ =* 
*चौंप चरचा* 
*दादू श्रोता स्नेही राम का, सो मुझ मिलवहु आणि ।* 
*तिस आगे हरि गुण कथूं, सुणत न करई काणि ॥१०२॥* 
टीका ~ स्वयं को उपलक्षण करके ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज परमेश्‍वर कहते हैं कि “हे परमेश्‍वर ! हमें कोई जिज्ञासु मिले तो, आपका ही अनन्य भक्त मिले क्योंकि उसको आपके ज्ञान - ध्यान की वार्ता कहें तो सुनने में आलस्य और संसार की लज्जा नहीं करे । सत्य उपदेश का मनन व निदिध्यास रहे ॥१०२॥ 
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*साधु परमार्थी*
*दादू सब ही मृतक समान हैं, जीया तब ही जाण ।*
*दादू छांटा अमी का, को साधु बाहे आण ॥१०३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सर्व ही अज्ञानी संसारीजन स्वस्वरूप के तरफ से मरे हुए हैं अर्थात् विषयों में सकाम कर्मों में आसक्त हो रहे हैं । सौभाग्य से यदि ब्रह्मवेत्ता संत आत्म - उपदेश रूपी अमृत बरसावें तो जीव स्वस्वरूप में प्रवृत्त होकर सजीवन भाव को प्राप्त होते हैं ॥१०३॥
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*सबही मृतक ह्वै रहे, जीवैं कौन उपाइ ।*
*दादू अमृत रामरस, को साधू सींचे आइ ॥१०४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सर्व ही सांसारिक अज्ञानी प्राणी विषयासक्त, मृतक तुल्य हैं । उनके जीने का कोई भी उपाय नहीं है । केवल ब्रह्मवेत्ता संतों के आत्म - उपदेश ही उनके एक जीने का उपाय है । यदि वे मुक्त - पुरुषों की शरण में जावें, तब ही उनका कल्याण हो सकता है ॥१०४॥ 
(क्रमशः)

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