रविवार, 2 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(१०५/१०७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*सब ही मृतक देखिये, क्यों कर जीवैं सोइ ।*
*दादू साधु प्रेम रस, आणि पिलावे कोइ ॥१०५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सर्व ही संसारीजन जन्म - मरण के मार्ग में हैं । ये बहिर्मुख अज्ञानी इस प्रकार कैसे जीवेंगे ? कोई परोपकारी मुक्त - पुरुष, निष्कामी संत दया करके अपने उपदेशों द्वारा राम का भक्ति - वैराग्य रूपी अमृत पिलावें, तो ही जी सकते हैं ॥१०५॥ 
*सब ही मृतक देखिये, किहिं विधि जीवैं जीव ।* 
*साधु सुधारस आणि करि, दादू बरसे पीव ॥१०६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक प्राणी, अधिकतर विषय आसक्त होने से मृतक तुल्य हैं । यह बहिर्मुख जीव किस प्रकार जीवन - भाव को प्राप्त होवे ? यदि ईश्‍वर की कृपा हो और ब्रह्मवेत्ता सच्चे संतों की कृपा होवे, तब तो यह जीव संजीवन भाव को प्राप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं । परन्तु संत - कृपा तभी होती है, जब यह जीव उनकी शरण में जाय, तब वह आत्म - उपदेश द्वारा, ब्रह्म ज्ञानामृत पिलाते हैं ॥१०६॥ 
*हरि जल बरसै बाहिरा, सूखे काया खेत ।* 
*दादू हरिया होइगा, सींचणहार सुचेत ॥१०७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो पुरुष बहिर्मुखी है अर्थात् बहिरंग निषिद्ध कर्मों में आसक्त हैं, तो आत्म - उपदेश भी उसको निष्फल है और सकाम तप, व्रत, बहिरंग साधनों से शरीर कृश होता है । परन्तु जो साधक निष्काम कर्म करने वाला ईश्‍वर वाक्य और गुरु वाक्य में सावधान होकर, अन्तःकरण में शम - दम और वेदान्त श्रवण - मनन के द्वारा, ब्रह्म भाव को प्राप्त होते हैं, उनका काया रूपी खेत, दैवी सम्पत्ति से, सदैव हरा - भरा रहता है ॥१०७॥
(क्रमशः)

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