॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
*= मध्य का अंग १६ =*
.
*मन चित मनसा आत्मा, सहज सुरति ता मांहि ।*
*दादू पंचों पूरि ले, जहँ धरती अंबर नांहि ॥१६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अपना मन, चित्त, मनसा, बुद्धि और अन्तःकरण विशिष्ट जीवात्मा और पंच - ज्ञानेन्द्रियों सहित, इन सबको अखण्ड ब्रह्म - विचार में पूर्णरूप से लगाइये । क्योंकि परब्रह्म पांच तत्त्व के विकारों से निर्विकारी है ॥१६॥
.
*अधर चाल कबीर की, आसंघी नहिं जाइ ।*
*दादू डाकै मृग ज्यों, उलट पड़ै भुवि आइ ॥१७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता संतों की ‘चाल’, कहिए धारणा, ब्रह्माकार वृत्ति, गुण, क्रि या आदि से अधर है । साधारण प्राणी से अपनी वृत्ति बनाई नहीं जाती है क्योंकि विषयों में से आसक्ति छूटती नहीं है । जैसे पक्षियों को आकाश से उड़ते देखकर मृग भी आकाश में उड़ने के लिए उछाल मारे हैं, परन्तु पंखों के बिना आकाश में नहीं उड़ा जाता है, अतः भूमि के ऊपर ही गिरते हैं । इसी प्रकार संसारी विषयासक्त, अज्ञानीजन, ब्रह्मवेत्ता संतों की महिमा देखकर उनके व्यवहार का अनुकरण करते हैं, किन्तु विवेक - वैराग्य रूप पंखों के बिना फिर से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, आदि गुणों में ही आकर आसक्त होते हैं ॥१७॥
कोउ भेषधारी कही, चलैं कबीर ज्यों चाल ।
तब साखी स्वामी कही, मूढ बसे क्यूं ताल ॥
प्रसंग ~ कोई भेषधारी साधु, ब्रह्मऋषि दादू दयाल जी महाराज से बोला कि कबीर की भांति तो, हम भी चल रहे हैं, उसी मंजिल के हम हैं । तब परमगुरु बोले ~
ऊंधा कीया ठीकरा, सूधी कीनी आस ।
जग को त्याग दिखाइ करि, करै ताल पर बास ॥
हे मूढ ! कबीर तेरी तरह तालाब पर बसता था क्या ? तू तो ठीकरे में खाकर, उल्टा करके सिराने रखता है । ऐसा त्याग कबीर के मार्ग का नहीं था । कबीर तो वीतरागी था । ऐसा है कि ठीकरा तो तैने उल्टा कर लिया, परन्तु आशा - तृष्णा रूपी ठीकरा तो तेरा सीधा है । ऐसा त्याग जगत को दिखाकर तालाब पर रहकर दुनियां को बहकाता है ।
.
*दादू रहणी कबीर की, कठिन विषम यहु चाल ।*
*अधर एक सौं मिल रह्या, जहाँ न झंपै काल ॥१८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कबीर जैसे ब्रह्मवेत्ता संतों की चाल कहिए, ब्रह्मी अवस्था बनाना अति कठिन है । ब्रह्मवेत्ता संत निर्गुण ब्रह्म से अभेद होकर कर्म - बन्धनरूप काल से अजर - अमर होते हैं ॥१८॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें