मंगलवार, 11 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(१३/१५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
*दादू हद छाड़ बेहद में, निर्भय निर्पख होइ ।*
*लाग रहै उस एक सौं, जहाँ न दूजा कोइ ॥१३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ‘हद’ कहिए हिन्दू - मुसलमान, भेष - पंथ, कर्ता - भोक्ता, ऊँच - नीच आदिक का पक्ष त्याग कर निर्भय स्वरूप ब्रह्म में लय लगाकर मुक्त - पुरुष ब्रह्मरूप होते हैं ॥१३॥ 
*दादू दूजे अन्तर होत है, जनि आणै मन मांहि ।* 
*तहँ ले मन को राखिये, जहँ कुछ दूजा नांहि ॥१४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कर्त्ता - भोक्ता, वर्ण - आश्रम और तीर्थ - व्रत के अध्यास को त्यागकर अपने मन को उस ब्रह्मतत्त्व में रखिये, जिसमें यह कोई भी मायिक विकार नहीं व्याप्ते हैं ॥१४॥ 
*निराधार घर कीजिये, जहँ नांहि धरणि आकास ।* 
*दादू निश्‍चल मन रहै, निर्गुण के विश्‍वास ॥१५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! निराधार स्वरूप जो ब्रह्म है, उसमें अपनी वृत्ति को लगाइये । कैसे लगावें ? सो कहते हैं कि ब्रह्मी अवस्था में पंच - भूतों के गुण नहीं रहते । वहाँ गुणातीत होकर ब्रह्मस्वरूप में मग्न रहो ॥१५॥ 
(क्रमशः)

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