सोमवार, 3 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(१०८/११०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*कुसंगति*
*गंगा यमुना सरस्वती, मिलैं जब सागर मांहि ।* 
*खारा पानी ह्वै गया, दादू मीठा नांहि ॥१०८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे गंगा - यमुना का जल मीठा है, परन्तु खार समुद्र का संगम होते ही उनका जल खारा हो जाता है । इसी प्रकार सच्चे साधुजनों का अति निर्मल अन्तःकरण भी कुसंगति से, मीठी कहिए, स्वस्वरूप ब्रह्म को विसार कर विकारी हो जाता है । इसलिए उत्तम पुरुषों को सदैव ब्रह्मवेत्ता संतों की संगति में ही रहना चाहिए । अथवा इडा, पिंगला, सुषुम्ना तीनों स्वर, गंगा, यमुना, सरस्वती के समान हैं । ये तीनों स्वर संतों के सफल हैं, क्योंकि प्राणायाम और श्‍वास पर श्‍वास, ‘सोऽहं’ जाप से सार्थक हैं । परन्तु संसारी जनों के तीनों स्वर, कुसंग से ‘खारा’ कहिए, संसार - बंधन के ही कारण हैं ॥१०८॥ 
‘कबीर’ खाई कोट की, पाणी पीवै न कोइ । 
जाइ मिलै जब गंग में, सब गंगोदक होइ ॥ 
*दादू राम न छाड़िये, गहिला तज संसार ।* 
*साधु संगति शोध ले, कुसंगति संग निवार ॥१०९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! हे बावले ! हे भोले प्राणी ! इस संसार मोह को तज और राम का भजन कर । क्योंकि इस संसार प्रेम में, राम का स्मरण नहीं छोड़ना । इसको त्यागने का क्या साधन है ? सो कहते हैं कि साधु संगति प्राप्त कर ले और कुसंगति को त्याग दे ॥१०९॥ 
त्यज दुर्जन - संसर्गं, भज साधु - समागमम् । 
कुरु पुण्यमहोरात्रं, स्मर नित्यमनित्यताम् ॥ 
निष्कामी सेवक कही, सुख दुख सुनियो नांहि । 
मोड़े घोड़ी के कनैं, धोती दई सुखाहि ॥ 
दृष्टान्त ~ एक संत घूमते - घूमते एक गाँव में, एक भक्त के यहाँ गये और बोले ~ भक्त ! अबके चातुर्मास तेरे यहाँ ही ठहरेंगे । भक्त निष्कामी सच्चा परमेश्‍वर का सेवक था । वह बोला ~ ‘महाराज ! और किसी भक्त के यहाँ ठहर जाओ । संत बोले ~ नहीं, तुम्हारे ही ठहरेंगे । भक्त बोला ~ “हम गृहस्थी हैं । हमारे सुख - दुःख आते ही रहते हैं, आप हमारे सुख - दुःख में शामिल नहीं होवें, तो ठहरो” । संत ~ “भाई ! हम नहीं होंगे ।” 
सत्संग होता रहा । संत, भजन पाठ करते और सत्संग करते रहे । एक रोज भक्त की घोड़ी चोर चुरा कर ले गये । घर में विचार करने लगे कि हजार रुपये की घोड़ी चोर ले गये आज । संत के भी कानों में यह आवाज आ गई । मन में संत ने यह विचार किया कि घोड़ी तो आ जानी चाहिये, जहाँ भी हो वहाँ से । संत जंगल में घूमने गये । घोड़ी जो चोर ले गये थे, उन चोरों का लड़का घोड़ी की रस्सी पकड़ कर पानी पिलाने ले जा रहा था । घोड़ी उससे छुड़ाकर दौड़ी हुई आ रही थी । 
संत को देखकर घोड़ी हिनहिनाने लग गई । संत ने घोड़ी को तालाब पर लाकर छोड़ दी और स्नान करके अपनी धोती बड़ की डाली पर सुखा कर घर आ गये । विचार किया मन में, कि धोती लेने भक्त को तालाब भेजूँ, तब घोड़ी देख लेगा, तो पकड़ कर ले आवेगा । तब भक्त को बुलाकर बोले ~ “भाई ! हमारी धोती तालाब के किनारे सूख रही है, आप ले आओ ।” तुरन्त गया । धोती उठाई और वहाँ चरती हुई घोड़ी को पकड़ कर ले आया । 
घोड़ी को ठिकाने बांधकर भक्त संत से बोला ~ “महाराज ! अब आधा चौमासा किसी ओर भक्त के यहाँ कर लेना ।” “क्यों भाई ?” भक्त ~ “आपकी मेरी क्या बात हुई थी ?” संत ~ “सुख - दुःख में शामिल नहीं होना ।” भक्त ~ “तो फिर आप कैसे शामिल हो गये ?” महात्मा ~ “हम कहाँ हुए ?” भक्त ~ “घोड़ी कौन लाया ? आप ही तो लाये ।” महात्मा ~ भाई ! हम घोड़ी लेने थोड़े ही गये थे । भक्त ~ “आपके मन में संकल्प - विकल्प हुए कि नहीं ?” महात्मा ~ “जरूर हुए ।” भक्त ~ “इसी लिए तो घोड़ी आ गई । महाराज ! मैं कोई कामना रखकर, आपकी और परमेश्‍वर की सेवा नहीं करता हूँ । मेरे अन्दर किसी प्रकार की वासना उत्पन्न नहीं करता ।” संत ~ धन्य ! धन्य ! तुम्हारी सेवा को । तुम ही सच्चे सेवक हो । 
ब्रह्मऋषि कहते हैं कि राम के भजन में कोई कामना नहीं करना । 
*दादू कुसंगति सब परिहरै, मात पिता कुल कोइ ।* 
*सजन स्नेही बांधवा, भावै आपा होइ ॥११०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कुसंगति सब प्रकार से कहिए तन से, मन से, वचन से त्यागिये । चाहे माता हो कुसंग में, चाहे पिता हो, चाहे कुल बांधव हों, चाहे सज्जन हों, स्नेही हों, चाहें भाई हों, भावे अपना शरीर भी कुसंग में पड़ गया हो, तो भी उसके कुसंग को सब प्रकार से त्यागना चाहिये । अर्थात् अपने अन्तःकरण के गुण - विकार, सम्पूर्ण दोषों का भी त्याग करना चाहिए । तब ही यह जीव श्रेय को प्राप्त कर सकता है ॥११०॥ 
तजो रे मन ! हरि - विमुखन को संग । 
तजिए ताहि कोटि वैरी सम, करत भजन में भंग ॥ 
“जाके प्रिय न राम - वैदेही । 
तजिये ताहि कोटि वैरी सम, जदपि परम सनेही ॥” 
(दुःसंगः सर्वथा त्याज्यः ।) - तुलसी 
भरत मात को तज दई, पिता तज्यो प्रहलाद । 
गोप्यां पति, नुज लंकपति, अज आयो तज साध ॥ 
दृष्टान्त ~ भरत जी ने अपनी माता कैकयी का त्याग किया । प्रहलाद ने अपने पिता हिरण्यकश्यप का त्याग किया । गोपियों ने अपने पतियों को कुमार्गी जानकर भगवान कृष्ण की शरण में आ गई । विभीषण अपने भाई रावण का त्याग करके राम की शरण में आया । ऐसे ही संत, अपने बहिरंग और अन्तरंग इन्द्रियादि परिवार का त्याग कर आत्म - परायण होते हैं । 
श्रवण नारी परिहरी, कुब्जा तज कंसा । 
मन्दोदरी रावण तज्या, मेट्या हरि शंसा ॥ 
(क्रमशः)

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