मंगलवार, 4 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(१११/११२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*अज्ञान मूर्खः हितकारी, सज्जनो हि समो रिपुः ।* 
*ज्ञात्वा(परि) त्यजंति ते, निरामयी मनोजितः ॥१११॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी आत्मा से विमुख और मूर्ख, कहिए व्यवहार में शून्य है और अपना शुभ चिन्तक है, तो भी हे सज्जन ! शत्रु के समान ही है । इसलिए संतजन, अज्ञानी मित्र और सज्जन शत्रु को समान जानकर शुद्ध बुद्धि वाले पुरुष, इन का संग नहीं करते हैं ॥१११॥ 
पंडितो हि वरं शत्रुः, न मूर्खो हितकारकः । 
वानरेण हतो राजा, विप्रश्चौरेण रक्षितः ॥ 
दुश्मन की कृपा बुरी, भली सज्जन की त्रास । 
बादल कर गर्मी करै, जद वर्षन की आस ॥ 
इक नृप वानर को कियो, मन में अति विश्‍वास । 
चोर विप्र रक्षा करी, वानर कियो विनाश ॥ 
दृष्टान्त ~ एक बाजीगर ने बन्दर को पहरा देना सिखला रखा था । वह राजा के पास लाया और बोला ~ “यह वानर तलवार लेकर, रात भर चौकीदारी करता है ।” राजा ने उसकी कीमत मुँह मांगी उसे दिला दी और बन्दर को अपने महल में रात को अपने पलंग के पहरा देने को बांध दिया । एक रोज, एक पंडित ने विचार किया कि राजा के यहाँ चोरी करने चलें । यद्यपि वह पंडित था, परन्तु उसके हाथ में चोर रेखा पड़ी थी । इसलिये उसका मन चोरी करने को किया करता था । जब राजा के चोरी करने गया, तो खजाने पर पहुँचा । फिर वहाँ विचार किया कि सोने के चुराने में तो बहुत पाप है, चांदी के चुराने में भी बहुत पाप है । ऐसे देखते - देखते राजमहल में पहुँच गया । वहाँ देखा कि वानर हाथ में नंगी तलवार लिये राजा के पलंग के चारों तरफ घूम कर पहरा दे रहा है । ऊपर छत से एक काला सर्प राजा की गर्दन के ऊपर लटक रहा है । उसकी छाया राजा की गर्दन पर पड़ती थी । बन्दर तलवार लेकर ज्यों ही राजा की गर्दन पर मारना चाहे, तो सांप अपना फन ऊपर कर ले और छाया हट जाय । 
यह खेल ब्राह्मण ने देखा । ब्राह्मण ने सोचा कि मूर्ख बन्दर छाया को सांप समझकर राजा को मार बैठेगा, तो बड़ा अन्याय हो जाएगा । हो न हो, इस बन्दर को खत्म कर देना चाहिये । ब्राह्मण के पास भी तलवार थी । मौका पाकर बन्दर की गर्दन पर मारी कि दो टुकड़े हो गये । बन्दर की जरा सी पूँछ और कान का टुकड़ा काट कर जेब में रख लिया । ऊपर जो छत में सर्प था, उसको भी तलवार से मार कर ढाल में झेल लिया और राजा के पलंग के नीचे ढाल को उलटी करके ढक दिया । फिर वहाँ से चला । सोचा चोरी तो जरूर करनी चाहिए । सब चीजों में दोष देखता - देखता रसोई में पहुँचा । एक कोने में आटे का छानस पड़ा था । ब्राह्मण ने विचार किया कि पाप तो इसके चुराने में भी है । परन्तु चलो, यह तो ले ही चलें, गाय ही इसे खा लेगी । छानस की गठरी बांध कर सिर पर रख ली और घर ले आया । 
सवेरे राजा ने देखा कि बन्दर मरा पड़ा है । बन्दर को मारने वाले की तलाश करायी, परन्तु कुछ पता नहीं चला । ढाल उठाई तो, नीचे मरा हुआ काला सर्प भी देखने में आया । राजा ने विचार किया, ‘जिसने इस सर्प को मारा है, उसी ने इस बन्दर को मारा है ।’ डूंडी पिटवा दी कि जिसने बन्दर मारा है, वह आवे, उसको मुँह मांगा इनाम देंगे । बहुत से लोग इनाम के भूखे गये । राजा ने सबूत मांगी, तो कुछ नहीं । तब ब्राह्मण ने विचार किया, कि मैं भी चलूं । अपने सिर पर वह छानस की पोट रखकर दरबार में पहुँचा । राजा को नमस्कार किया और बोला ~ “मैंने बन्दर मारा है ।” राजा बोले ~ “सबूत क्या हैं ?” तो बन्दर के कान और पूंछ राजा के सामने डाल दिये । राजा देखकर चकित हो गये । राजा ने पूछा ~ “आपने बन्दर को क्यों मारा ?” उपरोक्त वृत्तान्त ब्राह्मण ने सारा सुना दिया । राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उपरोक्त श्‍लोक बोला । ब्राह्मण को मुंह - मांगी ईनाम दी और राजा जान गया कि मूर्ख द्वारा किया गया हित भी अहितकर है और विद्वान् द्वारा किया अहित भी हितकारक है । 
*कुसंगति केते गये, तिनका नांव न ठांव ।* 
*दादू ते क्यों उद्धरैं, साधु नहीं जिस गाँव ॥११२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कुसंग में पड़कर कितने ही अज्ञानी, मूर्ख संसारी जीव अधोगति में चले गये हैं । उन कुसंगियों का न तो कोई नाम लेवा है और न उनका ठांव स्थान व कोई उनका गाँव है । सब ही उज्जड़ हो गये । जिस गाँव में परमेश्‍वर के प्यारे संत नहीं हैं । उस गाँव का कैसे उद्धार हो सकता है ? सच्चे संतों के द्वारा ही जीव सन्मार्ग को अपना कर अपना कल्याण करते हैं । जिसके अन्तःकरण में संतों के शब्द नहीं हैं, उन जीवों का मनुष्य - जन्म निष्फल ही जाता है ॥११२॥ 
नारद कोप्यौ संत बिन, कोप कह्यो एक बैन । 
नगरी उबरी संत शऱण, बजर सिला से चैन ॥ 
दृष्टान्त ~ नारद जी त्रिलोकी में गमन करते रहते हैं । जिस गाँव में संत को नहीं देखें, तो उस गाँव को वे श्राप दे देते हैं । एक नगर में वह आये तो वहाँ इधर - उधर कहीं संत की कुटिया दिखाई नहीं पड़ी । तब क्रोध कर नारद जी बोले ~ इस गाँव पर इन्द्र का बज्र पड़ेगा । बज्र आकाश से चला, गड़बड़ाहट होता हुआ । उस गाँव की सीमा में एक संत की समाधि थी । वह संत तुरन्त बोले ~ “बज्र रुक जा ।” बज्र रुक गया । तब नारद जी ने देखा, “बज्र कैसे नहीं पड़ा ? कोई यहाँ संत है ।” नारद जी ने ध्यान धर कर देखा तो संत जमीन में समाधि लगाये बैठे हैं । समाधि खोलकर बोले ~ “नारद जी महाराज, कुछ जरा ऊपर - नीचे देखकर फिर बोला करो ।” नारद बोले ~ “महाराज ! जिस गाँव में संत दिखाई नहीं पड़ते, तभी मैं श्राप देता हूँ । आपके द्वारा इस गाँव की रक्षा हो गई ।” ब्रह्मऋषि कहते हैं, जिस गाँव में सन्त नहीं हैं, उनका उद्धार होना असम्भव है । 
पर उपकारी संत हो, ग्राम तज्यों कर छोहै । 
तीन तापपुर को भई, पुनि लाये कर मोहै ॥ 
दृष्टान्त ~ एक नगर में एक परोपकारी महात्मा रहते थे । नगरवासियों से याचना करके आये - गये, भूखे - प्यासे, दुखियों की सेवा - सत्कार किया करते । कुछ गाँव के लोग ईश्‍वर - विमुखी कहने लगे कि तुम गाँव से चले जाओ । गाँव को लूट - लूट कर दुनियां को खिलाते हो । महात्मा चले गये । गाँव के ऊपर तीन ताप, अध्यात्म, अधिभौतिक, अधिदैव आकर पड़ी । गाँव के सब लोग घबरा उठे । विचारशील लोगों ने कहा कि सुख चाहते हो तो, उन्हीं महात्मा को वापिस लाकर बसाओ । वह परोपकारी जनसमुदाय की सेवा करने वाले ईश्‍वर रूप हैं । जब गाँव के लोगों ने उनके पास जाकर अपना अपराध क्षमा चाहा और लाकर गाँव में बसाया, तो तीनों ताप शान्त हो गये । 
(क्रमशः)

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