मंगलवार, 4 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(११३/११४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*भाव भक्ति का भंग कर, बटपारे मारहिं बाट ।*
*दादू द्वारा मुक्ति का, खोले जड़े कपाट ॥११३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वंचक, छली, असत्यमार्गी, परमेश्‍वर के भाव और भक्ति को त्यागकर बटपारे(डकैती करने वाले) पथिकों को लूटने वाले असुरों को देखकर मुक्ति का द्वार खुला हुआ भी बन्द हो जाता है । क्योंकि वंचक पुरुष भाव - भक्ति को मिटाकर विषय - वासना में भटकाते हैं और ब्रह्मवेत्ता संतों के सत्संग में आने वालों के लिये मोक्ष द्वार खुलता है और सम्पूर्ण कर्म - बन्धन कट जाते हैं ॥११३॥ 
साधु संगति होत ही, मुक्त मुक्ति के पाट । 
जगन्नाथ अति अगम सो, सुगम होत हरि बाट ॥ 
जसवन्त नृप दिया कढाइ, मरुधर से सब भेख । 
दास नारायण जी कही, थैली नाना पेख ॥ 
दृष्टान्त ~ जोधपुर के राजा जसवन्त सिंह ने किसी पाखण्डी भेषधारी साधु के अपराध पर रुष्ट होकर मारवाड़ से सभी भेषधारी साधुओं को निकाल दिये । जो अच्छे संत थे, वे महाराज नारायनदास जी, जो दादूदयाल जी के पोता शिष्य थे, उनके पास जाकर बोले कि आपके शिष्य जसवंत सिंह राजा ने एक पाखण्डी की गलती पर सब साधुओं को निकाल दिया । महाराज बोले ~ “चिन्ता मत करो । राजा सब ठीक हो जाएगा ।” आप जोधपुर पधारो । राजा गुरु जी की अगवानी करने आया और महलों में ले जाकर ठहराया । नारायणदास जी महाराज बोले ~ “दो थैली रुपयों की चाहिए ।” राजा ने खजांची को हुक्म दिया कि दो थैली गुरु महाराज के पास ला दो । गुरु महाराज खजांची को बोले ~ दोनों थैलियों में एक - एक खोटा रुपया डाल लाना । दो थैली आ गई । सन्त राजा के सामने बोले ~ “इन रुपयों को परख लो । परखे तो दो रुपये खोटे निकले । महाराज ने कहा ~ “उठाओ, ले जाओ सभी खोटे हैं ।” राजा ~ “महाराज ! सभी तो खोटे नहीं है, दो खोटे हैं । दो और मंगवा लो ।” संत ~ “नहीं सब खोटे हैं ।” राजा ~ “महाराज ! मर्जी आपकी, खोटे तो सब नहीं है ।” संत बोले ~ “बाकी रुपया सब अच्छा है ?” राजा ~ “हाँ ।” “तुम्हारे नगर में अपराध तो एक पाखण्डी ने किया था, वह एक खोटा था । तुमने सारे साधुओं को मारवाड़ से कैसे निकाल दिया ? ’राजा ने नत - मस्तक होकर क्षमा - याचना चाही । महाराज बोले ~ “सब साधुओं की जमीन - जायदाद वापिस देओ और सबको बुलाकर बसाओ । साधु तो जनसमुदाय की सेवा करते हैं ।”राजा ने सब साधुओं को वापिस बुलाकर सबकी जायदाद लौटा दी । 
*सत्संग महिमा महात्म* 
*साधु संगति अंतर पड़े, तो भागेगा किस ठौर ।* 
*प्रेम भक्ति भावै नहीं, यहु मन का मत और ॥११४॥* 
टीका ~ हे मन ! तू सच्चे ब्रह्मनिष्ठ संतों की संगति से अलग रहकर किस जगह भाग कर जाएगा ? तुझे कहाँ शान्ति मिलेगी ? प्रभु की प्रेमाभक्ति तुझे अच्छी नहीं लगती है । हे मन ! तैने तो अपना और ही कुछ मत बना रखा है, उससे तो तेरा कल्याण नहीं होगा ॥११४॥ 
जो संतों की संगति से आत्मचिन्तन में अन्तराय पड़े, तो फिर और शान्ति का स्थान कहाँ है ? और शुभ संस्कारों की दुर्बलता से प्रभु प्रेमाभक्ति की वार्ता भी तुझे अच्छी नहीं लगती है । हे मन ! तू तो तेरी स्वेच्छा से वर्त रहा है, अर्थात् व्यवहार कर रहा है, इसी से सन्तुष्ट रहता है । यह मत अज्ञानी संसारी जनों का भी है । 
गुरु दादू की कथा में, आवत इक रजपूत । 
हुक्का की मन में रही, संतां कही सो सूत ॥ 
दृष्टान्त ~ आमेर में ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज बिराजते थे । आपके प्रवचन में ईश्‍वर प्रेमी, भक्त, संत कितने ही आकर सुना करते थे । एक रोज एक राजपूत ने भी सुना कि ब्रह्मऋषि गुरुदेव का यहाँ प्रवचन होता है । वह राजपूत हुक्का पिया करता था । हाथ में हुक्का पकड़े, नय लगाये पीता हुआ, जहाँ पर गुरुदेव के प्रवचन हो रहे थे, सामने आकर खड़ा हो गया और झांकने लगा । श्रोता लोग उसे देखकर सभी चकित हो गये । खड़ा - खड़ा गुड़ - गुड़ हुक्का पीने लगा । संतों ने कहा ~ “ठाकुर साहब ! विराजो । नमस्कार करके बैठो, सत्संग सुनो ।” राजपूत बोला ~ “मोड़े इकट्ठे होकर बैठे हैं, कोई आव नहीं, आदर नहीं, बैठने को मांचा नहीं, कुर्सी नहीं, कोई मुढा नहीं, कहाँ बैठें?” भिनभिनाहट करके राम का कपूत वापिस ही लौट गया । 
ब्रह्मऋषि कहते हैं कि “यहु मन का मत और ।” 
जन रज्जब गुरु सान पर, झूठी मन तलवार । 
तो तीखी कित कीजिये, रे मन सोच विचार ॥ 
(क्रमशः)

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