शनिवार, 15 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(२८/३०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*एक देश हम देखिया, जहँ बस्ती ऊजड़ नांहि ।*
*हम दादू उस देश के, सहज रूप ता मांहि ॥२८॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मदेश हमने अनुभव द्वारा देखा है, वहाँ वासना - विकार रूप बस्ती नहीं है । हम कहिए, मुक्तजन उस ब्रह्मदेश के हैं और सहजावस्था द्वारा उसी में समा रहे हैं । अथवा वहीं चैतन्य ब्रह्म सहज कहिए, निर्द्वन्द्व रूप से सब में समाया हुआ है । मुक्तजन अनुभव द्वारा उसका साक्षात्कार करते हैं ॥२८॥ 
*एक देश हम देखिया, नहिं नेड़े नहिं दूर ।* 
*हम दादू उस देश के, रहे निरंतर पूर ॥२९॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमने एक देश कहिए, ब्रह्म - देश अनुभव द्वारा निजरूप करके देखा है । परन्तु वह न तो नजदीक है और न दूर है । कारण, नजदीक और दूर वह वस्तु होती है, जो अपने से अलग हो । इसलिये ब्रह्म को नजदीक या दूर नहीं कह सकते । क्योंकि वह तो सबका आत्म - स्वरूप ही है, उसी में अन्तराय रहित होकर अपने मन को पूर्णतया लगाना चाहिये । अथवा ज्ञान से वह समीप है और अज्ञान से दूर है ॥२९॥ 
*एक देश हम देखिया, जहँ निशदिन नांहीं घाम ।* 
*हम दादू उस देश के, जहँ निकट निरंजन राम ॥३०॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमने अनुभव द्वारा एक ऐसा देश देखा है, जहाँ न तो लौकिक रात होती है और न दिन ही उगता है । और तमोगुण रूप घाम, सतोगुण रूप शीतलता भी वहाँ नहीं है अर्थात् ब्रह्मरूप होने पर मुक्तजनों की अज्ञान और ज्ञान वृत्तियों का विलय हो जाता है । फिर तीन प्रकार के दुःखों से मुक्त होकर निर्द्वन्द्व भाव से संतजन स्वरूप निरंजन ब्रह्म में मग्न रहते हैं ॥३०॥ 
(क्रमशः)

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