शनिवार, 15 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(३१/३३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*बारहमासी नीपजै, तहाँ किया परवेश ।*
*दादू सूखा ना पड़ै, हम आये उस देश ॥३१॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासु ! ब्रह्मनिष्ठ संत अर्न्तंमुख होकर स्वस्वरूप में अखंड वृत्ति लगावें, तो फिर स्वस्वरूप ब्रह्म के ‘सूखा’ कहिए, वियोग नहीं होता है । हम मुक्तजन उसी देश से अर्थात् ब्रह्म - देश से जन - समुदाय का कल्याण करने के लिए बहिरंग द्वारा वृत्ति द्वारा उपदेश करते हैं ॥३१॥ 
*जहँ वेद कुरान की गम नहीं, तहाँ किया परवेश ।* 
*तहँ कछु अचरज देखिया, यहु कुछ औरै देश ॥३२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सतगुरु महाराज कहते हैं कि जिस ब्रह्म में वेद और कुरान की, शक्ति वृत्ति की, गति नहीं पहुँचती है, वहाँ मुक्तपुरुष स्वस्वरूप में स्थिर होकर जब ब्रह्मानन्द का अनुभव किया तो फिर मायावी कार्य की विचित्रता को विचार करके अति चकित होते हैं ॥३२॥ 
वेद कुरान त्रिगुण को गावै । 
भाग त्याग बिन ब्रह्म न पावै ॥ 
दादू वाणी निर्गुण वेदा । 
निर्गुण पाइ करै भव छेदा ॥ 
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । 
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ 
- गीता २ - ४५ 
(वेद तीनों गुणों के विषय की बातें करते हैं । हे अर्जुन ! योगक्षेम की इच्छा न रखते हुए तीनों गुणों से रहित होगा । रागद्वेष के द्वन्द्वों से रहित होकर निरन्तर परमात्मा में ही स्थित होगा ।) 
*भ्रम विध्वंस* 
*ना घर रह्या न वन गया, ना कुछ किया क्लेश ।* 
*दादू मन ही मन मिल्या, सतगुरु के उपदेश ॥३३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वे मुक्त - पुरुष, घर कहिए प्रवृत्ति मार्ग और वन कहिए निवृत्ति मार्ग, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर और न किसी प्रकार का बहिरंग तप - जप आदि का क्लेश ही उठाया । किन्तु केवल सतगुरु के ज्ञान उपदेश के द्वारा ही व्यष्टि - चैतन्य रूप मन, समष्टि - चैतन्य रूप ब्रह्म से अभेद हो गया ॥३३॥ 
(क्रमशः)

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