शुक्रवार, 7 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(१२५/१२७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
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*अमिट पाप प्रचंड* 
*दादू काया कर्म लगाइ कर, तीर्थ धोवै आइ ।* 
*तीर्थ मांही कीजिए, सो कैसे कर जाइ ॥१२५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक प्राणी किये हुए पाप - कर्मो को धोने के लिये तीर्थों में आकर स्नान करते हैं, परन्तु यहाँ तीर्थ में भी फिर अनेक प्रकार के पाप - कर्म करने लगते हैं, वे किस प्रकार मिटेंगे ? ये तो बज्र - लेप पाप हैं । ये कहीं नहीं मिटेंगे । अथवा यह मनुष्य शरीर ही तीर्थ कहिए, तरने का स्थान है और इसी में भक्ति - ज्ञान के द्वारा जीव अपने पापों को मेटने में समर्थ है । परन्तु जो अज्ञानी, मनुष्य शरीर पाकर भी भगवान् से विमुख कर्म करते हैं, उनके उद्धार का कोई भी साधन फिर नहीं है । और जो सत्संग पाकर भी मन के विषय - विकारों को नहीं धोते हैं, उनका कल्याण होना असम्भव है ॥१२५॥ 
कर्म जिते गृह में लगे, देवद्वार नसि जाइ । 
जगन्नाथ तहाँ कीजिये, सो कैसे कर जाइ ॥ 
सुरघर अरु तीरथ विषै, सतसंगति गुरु साथ । 
उत्तम अस्थल अघ किये, अमिट पाप जगन्नाथ ॥ 
*जहँ तिरिये तहँ डूबिये, मन में मैला होइ ।* 
*जहँ छूटे तहँ बंधिये, कपट न सीझे कोइ ॥१२६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिस मनुष्य शरीर में तिरने का कहिए, संसार से पार होने का परमेश्‍वर ने मौका दिया है, उसमें अब यह जीव, माया का मल अर्थात् अपना पाप रूपी मल दूर नहीं करता है, तो ऐसे अज्ञानी मन्दभागी जीव संसार के जन्म - मरण में ही गोते खाते रहते हैं, क्योंकि माया - मोह के बन्धन से छूटने का सत्संग रूप साधन प्राप्त करके भी जिनका विषय - वासना और तृष्णा रूप कपट दूर नहीं हुआ, उनको अब संसार से मुक्त होने का और कोई भी उपाय नहीं हैं ॥१२६॥ 
*सत्संग महिमा* 
*दादू जब लग जीविये, सुमिरण संगति साध ।* 
*दादू साधू राम बिन, दूजा सब अपराध ॥१२७॥* 
इति साधु का अंग सम्पूर्ण ॥ अंग १५॥ साखी १२७॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अब प्रकरण का उपसंहार करके इस अंग का तात्पर्य कहते हैं कि हे संतों ! जब तक प्रारब्ध भोग के अनुसार प्राण और स्थूल शऱीर का संयोग बना रहे, तब तक पूर्ण रूप से वृत्ति को प्रभु के स्मरण और सत्संग में लगा कर रहिये । क्योंकि शेष, बाकी, सब व्यवहार पापरूप हैं, इसलिए त्यागने योग्य हैं । 
इति साधु का अंग टीका सहित सम्पूर्ण ॥ अंग १५॥ साखी १२७॥
(क्रमशः)

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