शनिवार, 8 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(१/३)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
अब साधु के अंग के अनन्तर, “दादू साधु जन सुखिया भये, दुनिया को बहु द्वन्द्व ।” इत्यादिक सूत्र के व्याख्यान स्वरूप मध्य का अंग निरूपण करते हैं । ब्रह्म और ब्रह्मवेत्ता पुरुष माया रचित सर्व संसार - प्रपंच में साक्षीभाव से व्यापक रहते हुये भी कमल की भाँति असंग गुणातीत रहते हैं, उनका साधन सहित वर्णन करते हैं । 
*मंगलाचरण* 
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।* 
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥* 
टीका ~ हरि, गुरु, संतों के चरणों में हमारी पुनः पुनः वन्दना है, जिनकी कृपा से साधु लक्षणों को धारण करके गुणातीत होकर संसार से पार होते हैं ॥१॥ 
*मध्य निष्पक्ष* 
*दादू द्वै पख रहिता सहज सो, सुख दुख एक समान ।* 
*मरै न जीवै सहज सो, पूरा पद निर्वाण ॥२॥* 
 टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! प्रथम तो ब्रह्म ही सगुण निर्गुण दोनों पक्षों से रहित है और फिर ब्रह्मवेत्ता मुक्तपुरुष भी द्वैतभाव से रहित हैं । वे सम्पूर्ण राग - द्वेष आदि द्वन्द्वों से मुक्त होकर स्वस्वरूप में लीन रहते हैं । उनकी विचार दृष्टि में सुख - दुःख, जीवन - मरण, सब समान हैं । जिससे सहजावस्था द्वारा पूर्ण पद अजर, अमर, निराकार, आत्म - तत्त्व में ही मग्न रहते हैं ॥२॥
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*सहज रूप मन का भया, जब द्वै द्वै मिटी तरंग ।
*ताता शीला सम भया, तब दादू एकै अंग ॥३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी पुरुषों का मन बाह्य विषयों से अनासक्त हुआ तो फिर सुख, दुःख आदिक द्वन्द्व मिट जाते हैं और तमोगण, रजोगुण, सतोगुण में समभाव गुणातीत होकर मुक्तजन ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं ॥३॥ 

(क्रमशः)

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