॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*माया*
*दुहुँ बिच राम अकेला आपै, आवण जाण न देहि ।*
*जहँ के तहँ सब राखै दादू, पार पहुँचे तेहि ॥२२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! माया और सच्चे मुक्त - पुरुषों के बीच में राम स्वयं प्रकट होकर रहते हैं, और संतों के मन को माया - विकारों में नहीं जाने देते और मायावी धर्म - संतों में नहीं आने देते । संतों की सुरति को अपने में लगाये रहते हैं । जिन पर ऐसी प्रभु की दया होती है, वे ही ब्रह्मभाव को प्राप्त होकर संसार - बन्धन से मुक्त होते हैं ॥२२॥
माया जन के मध्य हरि, भिन्न भिन्न गुन चीन्ह ।
जगजीवन सोई ऊबरैं, जिन पर कृपा कीन्ह ॥
गुरु दादू गये सीकरी, परचा लिया न दीन्ह ।
राम बीच दोऊ के रहे, चरचा ही में चीन्ह ॥
प्रसंग ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज को बादशाह अकबर ने आमेर के राजा भगवन्तदास के द्वारा सीकरी बुलवा कर ब्रह्मऋषि से प्रश्न उत्तर किये । उनसे ही बादशाह अकबर और बीरबल आदि सब सन्तुष्ट हो गये । यद्यपि ब्रह्मऋषि को परचा की इच्छा से सीकरी बुलाया थातथापि उनका ज्ञान सुनने के बाद परचा मांगने का साहस नहीं रहा । ब्रह्मऋषि ने भी परचे नहीं दिये । दोनों के बीच में राम प्रकट थे, चर्चा में ही बादशाह अकबर समझ गया ।
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*मध्य निर्पक्ष*
*चलु दादू तहँ जाइये, जहँ मरै न जीवै कोइ ।*
*आवागमन भय को नहीं, सदा एक रस होइ ॥२३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! विचार द्वारा सहजावस्था रूप समाधि में, स्वस्वरू प ब्रह्म में स्थिर होकर, लय लगाइये । फिर वहाँ न कोई जन्मता है और न कोई मरता ही है, क्योंकि उसमें जन्म और मरण के भय का अभाव है ॥२३॥
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*चलु दादू तहँ जाइये, जहँ चंद सूर नहिं जाइ ।*
*रात दिवस की गम नहीं, सहजैं रह्या समाइ ॥२४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! विचार द्वारा वहाँ जाओ, जहाँ प्रकृति से उत्पन्न चन्द्रमा, सूर्य, रात - दिन की गति कहिए, पहुँच नहीं है । वह चैतन्य ब्रह्मस्वरूप आत्मा सहजभाव से ही सम्पूर्ण संसार में समाया हुआ है, उसी में लय लगाओ ॥२४॥
(क्रमशः)
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