मंगलवार, 11 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(१०/१२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
*आपा मेटै मृत्तिका, आपा धरै आकास ।*
*दादू जहाँ जहाँ द्वै नहीं, मध्य निरंतर वास ॥१०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परिछिन्न अभिमान अर्थात् शरीर के अध्यास को मिटाकर, पृथ्वी की तरह जीवत - मृतक होकर निराकार ब्रह्म में आपा को लय करे । ऐसे स्वस्वरूप को निश्‍चय करने वाले मुक्तजन निर्द्वन्द्व होकर निष्पक्ष ब्रह्मस्वरूप में मग्न रहते हैं और स्थूलता, गोरापन आदि के अहंकार को छोड़कर “अहं ब्रह्मास्मि” वृत्ति का अभ्यास करते हैं । जब त्याग तथा अभ्यास रूप, दोनों ही वृत्तियों का लय हो जावे, तभी मध्य निरंतर वास कहिए, ब्रह्मभाव स्वरूप स्थिति की पूर्ण विदेह अवस्था है ॥१०॥ 
*ध्येय परम स्थान निरूपण* 
*नहिं मृतक नहिं जीवता, नहिं आवै नहिं जाइ ।* 
*नहिं सूता नहि जागता, नहिं भूखा नहिं खाइ ॥११॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वह ब्रह्मतत्त्व ध्येय - स्वरूप, निरुपाधिक, अद्वैत, एक रस, निष्क्रिय है । उसमें मरना - जन्मना, आना - जाना, सोना - जगना, भूखा - धाया इत्यादिक सब क्रि याओं का अभाव होने से, भाव या अभाव रूपता से, ब्रह्म का निरूपण नहीं बनता है । इसलिये अवाच्य तत्त्व है ॥११॥ 
*दादू इस आकार तैं, दूजा सूक्षम लोक ।* 
*तातैं आगे और है, तहँ वहाँ हर्ष न शोक ॥१२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अन्नमय इस स्थूल शरीर से आगे सूक्ष्म शरीर, फिर कारण शऱीर, उससे आगे साक्षी चैतन्य कूटस्थ ब्रह्म है । मुक्त - पुरुष इस ब्रह्मभाव को प्राप्त होकर हर्ष - शोक से रहित हो जाते हैं ॥१२॥ 
स्थूल देह आकार है, दूजा सूक्ष्म लिंग । 
कारण देह सु तीसरी, तमैं दोनों भंग ॥ 
(क्रमशः)

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