रविवार, 9 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(७/९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
*सुख दुख मन मानै नहीं, आपा पर सम भाइ ।*
*सो मन ! मन कर सेविये, सब पूरण ल्यौ लाइ ॥७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो पुरुष सुख - दुःख, हर्ष - शोक, मान - अपमान, ऊंच - नीच, राग - द्वेष नहीं अपना कर और अपना - पराया कहिये, मैं - तूं का भाव छोड़ कर, व्यष्टि - चैतन्य का समष्टि - चैतन्य से विचार द्वारा कहिए, चिन्तन से एकता करके सब प्रकार अन्तर्मुख वृत्ति से व्यापक - स्वरूप में लय लगावे, वही पुरुष मध्य - मार्गी कहा जाता है ॥७॥ 
सर्व - भूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । 
ईक्षते योग - युक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ 
*ना हम छाड़ैं ना गहैं, ऐसा ज्ञान विचार ।* 
*मध्य भाव सेवैं सदा, दादू मुक्ति द्वार ॥८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे, मुक्त, ब्रह्मवेत्ता, संग्रह और त्याग के अहंकार से मुक्त पुरुष, जरणा करने वाले, निष्पक्षता से स्वस्वरूप में लय द्वारा लीन रहते हैं । ऐसे पुरुषों का शरीर या उनका सत्संग मुक्ति का साक्षात् द्वार है ॥८॥ 
*सहज शून्य मन राखिये, इन दोन्यों के मांहि ।* 
*लै समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नांहि ॥९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! हठयोग से मन को निर्द्वन्द्व, शून्य, निर्विकल्प बनाकर स्वस्वरूप में स्थिर करिये और लय रूप भक्ति द्वारा परमेश्‍वर का दर्शन रूप अमृत पान करिये । तात्पर्य यह है कि तत्त्वबोध रूपी लक्ष्य तो योग और भक्ति का एक ही है, परन्तु लय रूप भक्ति - मार्ग सुगम है । फिर वहाँ काल - कर्म का भय व्याप्त नहीं होता ॥९॥ 
(क्रमशः)

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