रविवार, 9 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(४/६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
*सुख दुख मन मानै नहीं, राम रंग राता ।*
*दादू दोन्यों छाड़ि सब, प्रेम रस माता ॥४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिन मुक्तपुरुषों का मन सुख - दुःख, हर्ष - शोक को नहीं अपनाता है और कर्मों के फल से उदासीन रहता है, उनका मन सदा मायावी कार्य के द्वैतभाव को त्यागकर भक्ति, ज्ञान, वैराग्य के द्वारा राम - नाम के स्मरण में राता = रत्त और माता = मस्त रहता है ॥४॥
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*मति मोटी उस साधु की, द्वै पख रहित समान ।*
*दादू आपा मेट कर, सेवा करै सुजान ॥५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो साधन सम्पन्न और परम विवेकी है, वह स्थिर - प्रज्ञ, सर्वत्र समता के भाव और आत्म - भाव का निश्‍चय करके अहम्ता व ममता भाव को छोड़ता है और अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा नाम - स्मरण रूप सेवा करता रहता है ॥५॥
तुलाधार द्वै पक्ष तजी, समता ज्ञान विचार । 
मध्य मार्ग दादू गह्यौ, जाजली जनक हु सार ॥
दृष्टान्त ~ काशी में तुलाधार नाम का एक पुरुष था । सुना जाता है कि उसके घी की दुकान थी । वह एक भाव घी दिया करता था । उसकी दुकान पर बच्चा, बूढा, जवान, स्त्री, पुरुष, ऊँच, नीच इत्यादि कोई भी जावे, उसकी सम - दृष्टि थी, डंडी नहीं मारता, खरी वस्तु देता । एक से पैसे सबसे लेता । यह उसका तप था । इसके प्रभाव से वह भूत, भविष्य, वर्तमान तक की बात जानता था, झूठ नहीं बोलता था । एक समय जाजली - मान ब्राह्मण तपस्या कर रहा था । एक रोज कपोत - कपोतनी दोनों उड़ते हुए आये और जाजलीमान को ठूंठ समझकर उसके सिर की जटाओं में घोंसला बनाने लगे । घोंसला बनाकर अंडे दिये, फिर बच्चे निकल आये और उनके पंख वगैरा आ गये । तब वे सबके सब एक रोज उड़ गये । जाजलीमान जानते थे कि मुझे इन्होंने पेड़ - ठूंठ समझ कर घोंसला बनाया है, परन्तु आज वे सबके सब उड़ गये हैं । मैं यहॉं से चलूंगा, तो वे शाम को आकर देखेंगे, तो उन्हें बहुत दुःख होगा कि हमारा घर कहॉं चला गया ? इसलिए आज मैं यहीं ठहरूं । सायंकाल को वे नहीं आयेंगे तो जान लूंगा कि उन्होंने दूसरा घोंसला कहीं ओर बना लिया । जब वे सायंकाल को नहीं आये, तो दूसरे दिन जाजलीमान को तप का भारी अहंकार हो गया कि मैंने ऐसा तप किया कि छः महीने तक जहॉं मैं खड़ा था, वहॉं पक्षियों ने मेरी जटाओं में घोंसला बना लिया । ऐसा तप और कौन करेगा ? तब आकाशवाणी हुई कि हे तपोधन ! हे जाजलीमान ! अभी तो आप काशी में तुलाधार के पास जाकर उपदेश ग्रहण करो, तब आपको ज्ञान होगा । यह आकाशवाणी सुनकर जाजलीमान का अहंकार चूर हो गया और वहॉं से चला । काशी में आया । तुलाधार को घी बेचते हुए देखा । मन में सोचने लगा, यह मुझे क्या ज्ञान उपदेश करेगा ? ‘‘जाजलीमान ! आओ’’ सुनकर आश्‍चर्य हुआ कि इसे मेरे नाम का क्या पता ? तुलाधार बोला ~ ‘‘नाम का ही नहीं, मैं आप के तप को भी जानता हूँ । आप तप करने जब चले, अमुक स्थान में आप खड़े हुए और आप को ठूंठ समझकर कपोत - कपोतनी ने आप की जटाओं में घुसकर घोंसला बनाया । आप छः महीने तक फिर वहीं खड़े रहे, फिर कपोत - कपोतनी बच्चों के सहित सब उड़ गये । आकाशवाणी ने जब आपको उपदेश किया तो आप यहॉं मेरे पास आये । मेरा काम देखकर आप वापिस लौट रहे थे । आपको यह भ्रम हुआ कि यह क्या जानता है ? ऐसी बात नहीं है ।’’ जाजलीमान यह सुनकर पानी - पानी हो गया और बोला ~ ‘‘आपकी ऐसी शक्ति इस प्रवृत्ति - मार्ग में किस प्रकार हो गई ?’’ तुलाधार ~ ‘‘हे तपोधन ! जो मानव शास्त्र के अनुसार अपने - अपने कर्मों को सत्यता - पूर्वक करता है, वह कोई भी क्यों न ही ? उसकी यही स्थिति हो जाती है । यही मेरा तप है । इसलिए आप भी अब शास्त्र में जो ब्राह्मण के कर्म बतलाये हैं, उन कर्मों को सम्पादन करके सत्यता - पूर्वक जन - समुदाय की समता - ज्ञान द्वारा सेवा कीजिये । आपकी भी ऐसी दृष्टि बन जाएगी । हे जाजलीमान ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र; गुण और कर्म द्वारा ही बने हैं और इसी प्रकार कर्मों द्वारा सभी ने सिद्धि प्राप्त की है ।’’ जाजलीमान को इस समत्व - योग का ज्ञान तुलाधार द्वारा हुआ । जन - समुदाय की इस प्रकार सेवा करे, वही चतुर है । इसी प्रकार महाराजा जनक क्षत्रिय धर्म का, यानी प्रजा का पालन करते हुए समता - ज्ञान के द्वारा प्रवृत्ति - मार्ग में ही विदेह मुक्ति को प्राप्त हो गये और शुकदेव जैसे महान् अवधूत को जिन्होंने उपदेश किया ।
इसी प्रकार ब्रह्मऋषि दादूदयाल जी महाराज ने भी निष्पक्ष समता - ज्ञान को ग्रहण करके जन - समुदाय को जागृत किया ।
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*कछु न कहावै आपको, काहू संग न जाइ ।*
*दादू निरपख ह्वै रहै, साहिब सौं ल्यौ लाइ ॥६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! शास्त्र अनुसार कर्म करते हुए सब प्रकार कर्त्तव्य का अभिमान त्यागकर सुख - दुःख, मान - अपमान से उदासीन रहो और निष्पक्ष, तटस्थ साक्षी रूप से व्यवहार में वर्तो । और आत्मा के अन्दर लय लगाये रहो । बस, यही कल्याण का सार मार्ग है ॥६॥
(क्रमशः)

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