बुधवार, 5 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(११७/११८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*साधु कंवल हरि वासना, संत भ्रमर संग आइ ।*
*दादू परिमल ले चले, मिले राम को जाइ ॥११७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह संसार ही सरोवर है, इसमें ब्रह्मवेत्ता संतों का शरीर ही मानो कमल है और उसमें जीव ब्रह्म की एकता रूप ज्ञान ही सुगन्धि है । जैसे कमल की सुगन्धि सर्वत्र फैलती है, इसी प्रकार संतों की ज्ञान रूप महिमा सर्वत्र प्रकाश रही है । उत्तम जिज्ञासु ही भँवरा रूप हैं, वे संसार - दशा से उड़कर उनकी शरण में जाकर उस सुगन्धि का पान करते हैं, अर्थात् ज्ञान को सम्पादन करके स्वस्वरूप में अभेद हो जाते हैं ॥११७॥ 
*साधु सज्जन* 
*दादू सहजैं मेला होइगा, हम तुम हरि के दास ।* 
*अंतरगति तो मिलि रहे, पुनि प्रकट प्रकाश ॥११८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सतगुरु दादूदयाल जी महाराज कहते हैं कि हम और तुम परमेश्‍वर के भक्त हैं । परमेश्‍वर की कृपा से सहज में, कहिए स्वभाव से ही मिलाप होगा । अन्तःकरण में तो साक्षी - भाव से सब प्राणियों से मिले हुए ही हैं, किन्तु जब मुमुक्षु स्वस्वरूप में स्थित होते हैं, तब तो ब्रह्म प्रकाश स्वयं ही प्रकाशता है ॥११८॥ 
जगजीवन जी टहलड़ी, आंधी थे गुरुदेव । 
ताहि समय साखी कही, जगजीवन प्रति भेव ॥ 
प्रसंग ~ आंधी ग्राम में वैश्य पूरणचन्द जी और ताराचन्द जी, ब्रह्मऋषि दादूदयाल के शिष्य निवास करते थे । उनकी प्रार्थना को स्वीकार करके आंधी में ब्रह्मऋषि चातुर्मास पधारे । दौसा नगर टहलड़ी स्थान में ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज के शिष्य जगजीवनराम जी निवास करते थे । गुरुदेव के दर्शनों के लिये जगजीवनराम जी महाराज का मन बहुत इच्छा करने लगा । तब जगजीवनराम जी ने लिखा कि गुरुदेव ! आप के दर्शनों की भारी प्यास लग रही है, आपके दर्शन कब होंगे ? इसके उत्तर में ब्रह्मऋषि दादूदयाल जी महाराज ने उपरोक्त साखी जगजीवनराम जी को लिख भेजी । गुरुदेव के अमृतमय वचन विचार कर जगजीवन जी के मन में धैर्य आ गया । 
(क्रमशः)

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