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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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तृतीय दिन ~
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तजकर श्रेष्ठ अधम को लेवे,
प्रति वासर सो अधमहिं सेवे ।
चींचड रक्त लालची जानी, नहिं सखि ।
अवगुण ग्राहक प्रानी ॥१३॥
आं. वृ. - “उत्तम वस्तु को त्याग कर के अधम को ग्रहण करता है और प्रतिदिन अधम का ही सेवन करता है । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “स्थानों के पास रहने वाला चींचड है ।’’
आं वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो अवगुण ग्राहक मनुष्य है और सदा अधम मनुष्यों का ही संग करता है । ऐसे मनुष्यों का संग तू कभी न करना । क्योंकि जैसा संग वैसा ही रंग लग जाता है ।’’
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तज तनु स्थूलहिं रखती मांही।
निज कृत रत कुछ भाषत नांही ।
समझ गई चलनी मैं प्यारी, नहिं सखि ।
यह मति हीना नारी ॥१४॥
आं. वृ. - “सूक्ष्म को त्याग कर स्थूल को रखती है । अपने कार्य में रत्त रहती और बोलती कुछ भी नहीं । बता वह कौन है ?’’
वा. व-. - “चलणी है । तनु(सूक्ष्म) आटा तज कर स्थूल तुष रखती है ।’’
आं. वृ. - “नहिं सखी ! यह तो बुद्धिहीन स्त्री है । सूक्ष्म विचार की बातों को छोड़कर स्थूल कहानी ही याद रखती है । कथा सुनते समय भी कपड़े सीने बीज छीलने आदि अपने कार्य में चुपचाप लगी रहती है । तू ऐसा नहीं करना । विचार पूर्वक सूक्ष्म बातों को धारण करना और सत्संग के समय अन्य कार्य कभी नहीं करना । क्योंकि मन तो एक है, वह एक काल में एक ही काम कर सकता है ।’’
(क्रमशः)
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