गुरुवार, 21 नवंबर 2013

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卐 सत्यराम सा 卐
पहली श्रवण द्वितीय रसना, तृतीय हिरदै गाइ । 
चतुर्दशी चेतन भया, तब रोम रोम ल्यौ लाइ ॥३॥ 
टीका - सदगुरु द्वारा जो ब्रह्म उपदेश श्रोत्र से सुना, वह स्मरण में हेतु है और रसना से राम - नाम का उच्चारण स्मरण का स्वरूप है और जिज्ञासुजनों की तीसरी अवस्था रात - दिन हृदय में ही नाम उच्चारण की होती है । जप दो प्रकार होता है : (१)वाचिक(बोलकर) या कंठस्थ(बिना बोले चुपचाप), (२) मानसिक(मन से जाप) वाचिक जाप की अपेक्षा कंठस्थ श्रेष्ठतर और मानसिक जाप श्रेष्ठतम होता है । यह स्मरण का फल है कि जब रोम - रोम में ध्वनि होने लगे, तो जिज्ञासुजन चौथी दशा में चैतन्य कहिए, राम - रूप हो जाते हैं ॥३॥ 
आठ मास जिह्वा रटै, सोला मास कंठ जाप । 
बत्तीस मास हृदय जपै, रहैं न तीनों ताप ॥ 
(तीन ताप - आध्यात्म, आधिदैविक, अधिभौतिक ।)
पाव भजन जिह्वा कह्यो, कंठ कह्यो अध सेर । 
तीन पाव हृदय कह्यो, रोम रोम कह्यो टेर ॥ 
चिन्तन की चौथी दशा, रोम रोम धुनि राम । 
चोखा शव से सब सुनी, विट्ठल ध्वनि अष्टयाम ॥ 
दृष्टांत :- चोखा मेला महार जाति के थे और मंगल बेडा में रहते थे । भक्त नामदेवजी से इन्हें विट्ठल भगवान की भक्ति का रंग लगा था । प्राय: पंढरपुर में विट्ठल भगवान के दर्शन करने जाया करते थे । सन् १९३८ में मंगल बेड़ा नगर के डंडे की मरम्मत हो रही थी । उस समय वह डंडा ढह गया और उसके नीचे चोखा मेला सहित १६ व्यक्ति दबकर मर गये । 
जब नामदेवजी को इसका पता चला तो चोखा मेला के शव को पंढरपुर लाने के लिए भक्त - मण्डली सहित हरिनाम कीर्तन करते हुए गए । सबने मिलकर दीवार का मलबा हटाया तो उसके नीचे १६ व्यक्तियों के शव निकले, जिनकी मुखाकृति विकृत हो चुकी थी, अत: उनमें चोखा मेला का शरीर पहचानने में नहीं आया । 
नामदेव जी ने कहा :- चोखा भगवान् का भक्त था, अत: जिस शव के रोम - रोम से विट्ठल ध्वनि सुनाई दे, वही चोखा का शव है । इस तरह चोखा के शव का निश्चय किया और कीर्तन करते हुए शव को पंढरपुर में लाकर पण्ढरीनाथ के महाद्वार पर समाधि बनाई । ऐसे भक्तों के लिए श्री दादू जी महाराज ने कहा है :- "रोम रोम लै लाइ धुनि, ऐसे सदा अखण्ड ।"
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मन प्रबोध
दादू नीका नांव है, तीन लोक तत सार । 
रात दिवस रटबो करो, रे मन इहै विचार ॥४॥ 
टीका - परमात्मा का नाम ही सर्वश्रेष्ठ है । यही तीनों लोकों में तत्व या सार है । इसलिए हे जिज्ञासुजनों ! अपने अन्त:करण में यह निश्चय करो कि प्रति क्षण में ईश्वर का चिंतन करें । अब विशेष वर्णन प्रस्तुत साखी में ततसार पद का उल्लेख है । इसका अभिप्राय यह है कि तत्व का अर्थ तत् पद से लक्षित ईश्वर का वाचक है अर्थात् तत् कहिए ईश्वर और ईश्वर की सत्ता सगुण, निर्गुण उपाधि भेद से दो प्रकार की है । इस विकल्पात्मक स्थिति में प्रश्न उठता है कि तत् पद से केवल सगुण ईश्वर को ग्रहण किया जाये या निर्गुण को ? उत्तर :- शब्द के दो अर्थ होते हैं, एक वाच्यार्थ जो कि शब्दार्थ है और दूसरा लक्ष्यार्थ जो कि भावार्थ है । शब्दार्थ बुद्धि से तत्व का अर्थ होता है सगुण ईश्वर और लक्ष्यार्थ बुद्धि से निर्गुण ब्रह्म का बोध होता है । अब जिज्ञासुजनों के संदेह निवारणार्थ सार पद का उल्लेख करके दयामूर्ति ब्रह्मर्षि सतगुरुदेव ने लक्ष्यार्थ निर्गुण ब्रह्म के प्रति संकेत किया है, क्योंकि केवल वाच्यार्थ ही अभीष्ट होता तो सार पद का वर्णन करते । परम आचार्य ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज निर्गुण ब्रह्म के ही उपासक थे, इसलिए यही लक्ष्यार्थ में प्रमाण है ॥४॥ 
गुरु दादू पै आइयो, शिष्य होण इक वृद्ध । 
या साखी सुण लग रह्यो, मग्न भयो अरु सिद्ध ॥ 
दृष्टांत :- ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज आमेर में विराजते थे । एक रोज एक वृद्ध पुरुष ने महाराज को आकर नमस्कार किया और अपने उद्धार का साधन पूछा । गुरुदेव बोले :- बाबा, राम - राम किया करो । कुछ दिन बाद संतों ने कहा :- बाबा, बैठे - बैठे आप राम - राम ही करते हो ? कुछ साखी श्लोक याद किया करो । 
बाबा बोले :- गुरु महाराज का तो यह आदेश है कि रात - दिन राम - राम कहो । अब रात दिन में से कोई और समय होवे, तो आप मुझे बताओ आपके साथ साखी शब्द याद करूँगा । रात - दिन तो गुरु महाराज की आज्ञा का ही पालन करूँगा । साधु चकित हो गए । बाबा राम-राम के प्रताप से वचन - सिद्ध हो गये ।
(श्री दादू वाणी ~ स्मरण का अंग) 
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साभार : सनातन धर्म एक ही धर्म ~ 
संकीर्तन से देहाध्यास समाप्त हो जाता है । 
गहन अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है । 
अनवरत संकीर्तन से मन शुद्ध होता है । 
प्रतिदिन संकीर्तन से अच्छे संस्कार सशक्त होते हैं । 
जो मनुष्य स्वयं को अच्छी सोच और पवित्र विचारों का प्रशिक्षण देता है उनके अन्दर शुभ विचार करने की प्रवृति विकसित हो जाती है । 
अच्छे विचारों की निरंतरता से उसका चरित्र रूपांतरित हो जाता है । उसकी मनोवृत्ति और भाव शुद्ध और दिव्य हो जाते हैं । 
धयाता और ध्येय, उपासक और उपास्य, विचारक और विचार एक हो जाते हैं ... यही समाधि है । 
यह संकीर्तन या उपासना का फल है ।

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