गुरुवार, 21 नवंबर 2013

= ८३ =



#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू सपने सूता प्राणिया, किये भोग विलास । 
जागत झूठा ह्वै गया, ताकी कैसी आस ॥४॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे स्वप्न अवस्था में मनुष्य अनेक सुखों का उपभोग करता है, किन्तु जाग्रत अवस्था में वे सब मिथ्या प्रतीत होने लगते हैं । ऐसे स्वप्ने के सुखों की क्या आशा करिये कि ये स्थिर रहेंगे ! सांसारिक सुख तो आभास मात्र हैं । अतः नित्यानन्द स्वरूप परमेश्‍वर का स्मरण करना चाहिये ॥४॥ 
यथा स्वप्नमुहूर्ते स्यात्, संवत्सर सत भ्रमम् ।
तथा माया विलासोऽयं, जाग्रते जाग्रत भ्रमम् ॥ 
सपना केरी सुन्दरी, नाख्यो कुवा मांहि ।
‘जैमल’ प्रत्यक्ष भोगते, क्यों ना नरका गति जांहि ॥ 
दृष्टान्त - एक पुरुष कुए के किनारे सो रहा था । उसे स्वप्ना आया कि मेरी शादी हो गई और वह और धराणी बीर पलंग पर सो रहे हैं । बीर बोली - "जरा उधर सरको ।" ज्यों ही पलटी खाई, त्यों ही वह कुए में धड़ाम से गिरा । आँख खुली, तब रोने लगा । स्वप्ने वाली सुन्दरी ने ही कुए में धकेल दिया, तो जो प्रत्यक्ष में उपभोग में लाते हैं, उनकी क्या हालत होती होगी ?
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यों माया का सुख मन करै, सेजां सुंदरी पास ।
अंत काल आया गया, दादू होहु उदास ॥५॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन चाहता रहता है कि रहने के लिए खूब सुन्दर बंगला होवे, घूमने को कार होवे, खान - पान के लिए नाना प्रकार के व्यंजन मिलें, अति सुन्दरी स्त्री होवे, उसके साथ अनेक प्रकार का रमण व्यवहार करूँ; ऐसे ही सोचते - सोचते और भोगते - भोगते अन्त समय आ जाता है और उनसे तृप्ति नहीं होती है । यमदूत गले में फाँसी डालकर ले जाते हैं । हे मानव ! इसलिए इनसे पहले ही उदासीन होकर परमेश्‍वर का भजन कर । इसी में जीवन की सफलता है । ।५॥ 
"अविद्या संपरिज्ञाता यदैव हि तदैव हि । 
सा परिक्षीयते भूय: स्वप्नेनेव हि भोगभू: ॥ " – वाशिष्ठ
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जे नांही सो देखिये, सूता सपने मांहि । 
दादू झूठा ह्वै गया, जागे तो कुछ नांहि ॥६॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मायिक सुख वास्तविक सत्य नहीं है, वह स्वप्न अवस्था में सत्य प्रतीत होता है, किन्तु सचेत होकर देखने से कुछ भी नहीं मिलता है । इसी भांति सांसारिक जनों को अज्ञान अवस्था में यह माया - सुख भी स्वप्नवत् सत्य भासता है, परन्तु जब विचार द्वारा देखें तो सब माया - प्रपंच स्वप्न - सुखवत् मिथ्या ही अनुभव होने लगता है ॥६॥ 
"संसार: स्वप्नतुल्यो हि रागद्वेषादिसंकुल: ।
स्वप्नकाले सत्यवद् भाति प्रबोधेऽसत्यवद् भवेत् ॥ "
कोऊ जन पकवान के, स्वप्ने भरे भंडार । 
न्यौंत बुलायो नगर सब, सोई देखूं अबार ॥ 
दृष्टान्त - एक पुरुष ने स्वप्न में अनेक प्रकार के व्यंजन बनवाये । मधुर, अलोने, सलोने, चटपटे बनवा - बनवा कर दो - तीन कमरे भर दिये । सवेरे उठा तो बहुत प्रसन्न मुद्रा से दो चार आदमियों को बुलाया, जो गाँव के प्रधान थे और बोला - "सारे गाँव में ढिंढोरा पिटवा दो कि मेरे यहाँ सारा गाँव बाल - बच्चों सहित आकर भोजन करे ।" वैसा ही पंचों ने किया । भोजन के समय पर लोग - बाग आ गये । भोजन करने को सभी लोग बैठे । पंचों ने कहा कि लाओ, समान कहाँ है मिठाई वगैरा ? उसने कहा -"उस कमरे में है ।" खोल कर देखा तो उसमें कुछ नहीं था । बोले - भाई ! इसमें तो मिठाई वगैरा कुछ भी सामान नहीं है । वह बोला - दूसरे कमरे में देखो । इस प्रकार मकान के सारे कमरे खाली पड़े थे । लोगों ने कहा कि खाने का सामान कब लाया था ? वह बोला, रात को बनवाया था । "सोई देखूं अबार", अभी मैं सो करके देखता हूँ कि वह सामान कहाँ है ? फिर बताऊँगा ।" लोगों ने कहा - बड़ा बेवकूफ है । इसको सपना आया होगा । लोग बोले - "अरे ! सपना आया था क्या ?" वह बोला - "हाँ" । गाँव के सब लोग अपने - अपने लोटों का पानी गिरा - गिरा कर चले गये ।
ब्रह्मऋषि सतगुरु देव कहते हैं कि स्वप्न के पदार्थ जाग्रत काल में सत्य नहीं होते हैं ।
(श्री दादू वाणी ~ माया का अंग)
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साभार : Gyan-Sarovar(ज्ञान-सरोवर) 
संसार की वास्तविकता--- 
पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे। उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थीं।भर्तृहरि ने स्त्री के सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर १०० श्लोक लिखे, जो श्रृंगार शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। 
उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया। देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे। 
ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं, मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है। हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी। वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह फल उन्हें दे आया। 
राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। 
फिर मन ही मन सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया। लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। वह अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था। अमर फल उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे। 
फल लेकर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। और यह फल खाकर मैं भी क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालती। मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया। 
राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर फल अपने पास रख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है, उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर उसने किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस फल की महिमा सुनाकर उसे राजा को दे दिया। और कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना। 
राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक रह गया। पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया। वहीं उसने वैराग्य पर १०० श्लोक लिखे जो कि वैराग्य शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। यही इस संसार की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है। 
इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण हैं। सब में कुछ न कुछ कमी है। सिर्फ एक ईश्वर पूर्ण है। एक वही है जो हर जीव से उतना ही प्रेम करता है, जितना जीव उससे करता है। बस हमीं उसे सच्चा प्रेम नहीं करते। गीता में कृष्ण ने यही समझाया है कि जो मुझ से प्रेम करता है, मैं उसका योगक्षेम वहन करता हूं - अर्थात उनके पास जिस वस्तु की कमी है, वह देता हूं और हर प्रकार से उसकी रक्षा करता हूं।

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