गुरुवार, 7 नवंबर 2013

दादू आशिक एक अल्लाह के ३/६५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*विरह का अंग ३/६५*
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*दादू आशिक एक अल्लाह के, फारिग दुनियां दीन ।*
*तारिक इस औजूद से, दादू पाक यकीन ॥६५॥*
दृष्टांत - 
पू़छा एक फकीर से, ताज शीश नहिं तोहि ।
कहा शीश मेरे सदा, चार तर्क की जोहि ॥३॥
एक बादशाह की सवारी आ रही थी । मार्ग में एक फकीर बैठे थे । चोबदारों ने कहा - बादशाह की सवारी आ रही है, खड़े हो जाओ । फकीर - हम भी बादशाह है क्यों खड़े हों । उक्त प्रकार बातें होते ही बादशाह की सवारी पास ही आ गई । बादशाह ने कहा - बादशाह तो मैं हूं मेरे शिर पर ताज है । आपके शिर पर ताज है ही नहीं फिर आप कैसे बादशाह हो ? फकीर तुम्हारे शिर पर तो एक ताज है और मेर शिर पर चार ताज हैं । बादशाह - दीखते तो नहीं । 
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फकीर - अंधों(ज्ञान नेत्रहीनों) को नहीं दिखते, ज्ञानियों को दीखते हैं । 
बादशाह - वे कौन से हैं ? बताईये । 
फकीर - १ - तर्क दुनिया । दुनियां से वैराग्य । 
२ - तर्क उकवा(परलोक से वैराग्य) । 
३ - तर्क मौला(खुदा से भी कु़छ नहीं चाहता) । 
४ - तर्क(वैराग्य से भी वैराग्य) अर्थात् वैराग्य का भी अभिमान नहीं है । बादशाह सुनकर लज्जित हुआ और प्रणाम करके चला गया । उक्त साखी में फारिग, तारिक, शब्दों से वैराग्य ही सूचित होता है और भगवत विरह में यह सब संभव है ।
(क्रमशः)

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