卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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पंचम दिन ~
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नयन रक्त आये मन मांही,
लाज जाय सब ज्ञान नशांहीं ।
क्या समझी सखि ! सुरा अबोधा,
नहिं, सखि ! महा प्रबल यह क्रोधा ॥५॥
आं. वृ. - “जिसके मन में आते ही नेत्र लाल हो जाते हैं और कुछ भी विचार नहीं रहता । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “मदिरा का नशा ।’’
आं. वृ. - “नहीं, सखि वह तो अति बलवान् क्रोध है । तू कभी भी अपने हृदय में क्रोध को स्थान न देना । क्रोध प्राणी का महान शत्रु है । क्रोध के द्वारा बड़ों-बड़ों का भी पतन हो जाता है । क्रोध के वश होकर इन्द्र ने विश्वरूप का शिर काटा । शिव ने ब्रह्मा का मस्तक छेदन किया । परशुराम क्षत्रियों का संहार किया । विश्वामित्र ने वसिष्ठ के सौ पुत्र मरवाये इत्यादिक कथाएँ पुराणों में प्रसिद्ध हैं । जब क्रोध के वश होकर उक्त महापुरुष भी हिंसा में प्रवृत्त हुये तब साधारण पुरुष की तो बात ही क्या है ? अत: तू अपने शत्रु क्रोध को हृदय में न आने देना । यदि किसी कारण से आ भी जाय तो उस समय क्रोध पर ही क्रोध कर के दांत भींच लेना और जब तक क्रोध का वेग सर्वथा शांत न हो जाय तब तक मौन ही रखना । ऐसा करने से क्रोध तेरी हानि नहीं कर सकेगा ।
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देखत दौड़ दौड़ कर आवे,
आड़ बिना से जल मर जावे ।
दीप शिखा में मरत पतंग,
नहिं, सखि ! कामी तिय के रंगा ॥६॥
आं. वृ. - “देखते ही दौड़-दौड़ कर आते हैं और यदि रुकावट नहीं हो तो जल कर मर जाते हैं । बता वे कौन हैं ?’’
वा. वृ. - “दीपक की ज्योति को देख कर पतंगे आते हैं और उसी में जल मरते हैं ।
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! वे तो कामी जीव हैं । नारी के रूप को देखकर, उसकी प्राप्ति के लिये लड़-लड़के मरते रहते हैं । ऐसे कामी प्राणियों के पास तू कभी न बैठना । तुझे ऐसे मनुष्यों के पास बैठना चाहिए जिनके संग से ईश्वर भक्ति का रंग लगे ।
(क्रमशः)
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