गुरुवार, 14 नवंबर 2013

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卐 सत्यराम सा 卐
ईश्‍वर समर्थाई
दादू जे हम चिन्तवैं, सो कछु न होवै आइ ।
सोई कर्त्ता सत्य है, कुछ औरै कर जाइ ॥१४॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो हम तो मन में कुछ और ही कार्य करने का संकल्प करें और वह समर्थ उससे विपरीत करके दिखा दे, तो फिर हमारा किया तो कुछ भी नहीं होता । समर्थ का ही किया सब कुछ होता है । तो वह समर्थ ही सत्य है । हम और हमारा सब मिथ्या है ॥१४॥
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एकौं लेइ बुलाइ कर, एकौं देइ पठाइ ।
दादू अद्भुत साहिबी, क्यों ही लखी न जाइ ॥१५॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर अवतार लेकर जीवों का कल्याण करने को ही संत रूप में प्रकट होकर संसार में आते हैंऔर कभी चले जाते हैं । अथवा भगवान् अवतार लेने के रूपों में, जीवों के कल्याण के लिये, कभी अपने भक्तों को संसार में भेजते हैं और कभी वापिस बुला लेते हैं । जैसे अजामेल को आपके पास बुला लिया और सनकादिकों को बुला लिये । अपने पास से जय, विजय को संसार में भेज दिये । इसी लिये प्रभु की अद्भुत समर्थाई किसी से जानी नहीं जाती है । और तो क्या कहें ? शेष, महेश आदि भी उसकी समर्थाई को देखकर थकित हो रहे हैं ॥१५॥
लिये बुलाइ हरि भक्त निज, कृपा करी बैकुंठ । 
दिये पठाय निज पौरिया, जय और विजय अकुंठ ॥
दृष्टान्त ~ एक समय सनकादिक बैकुण्ठधाम को जाने लगे । भगवान् के द्वारपाल जय - विजय बोले कि बिना हुक्म के बैकुण्ठ में नहीं जा पावोगे । सनकादिक बोले ~ ‘‘हम रोज जाते हैं । राक्षसों की तरह हुज्जत करते हो ? जाओ राक्षस बनो ।’’ भगवान् विष्णु प्रकट हो गये, बोले - यह श्राप मेरी इच्छा से हुआ है इनको, क्योंकि इनको द्वारपाल पद का बड़ा घमण्ड था । जय, विजय ने भगवान् के चरणों में नमस्कार किया, और सनकादिकों को नमस्कार किया और बोले ~ हमारा उद्धार होने का उपाय बतावें । तब सनाकादिक बोले ~ ‘‘द्वेषभाव से भक्ति करोगे तो तीन जन्म लोगे और प्रेम भाव से भक्ति करोगे तो सात जन्म होंगे, फिर तुम अपने पद पर यहीं आ जाओगे ।’’ भगवान् ने सनकादिकों को अन्दर बुला लिया और जय विजय को मृत्यु लोक भेज दिया । वह पहले हिरण्य और हिरण्यकश्यप, दूसरी बार रावण कुम्भकर्ण, और तीसरी बार कंस और वक्र दन्त बने फिर उसी पद को प्राप्त हो गये ।
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ज्यों राखै त्यों रहेंगे, अपने बल नांही ।
सबै तुम्हारे हाथ है, भाज कत जांही ॥१६॥
टीका ~ हे समर्थ परमेश्‍वर ! जैसे आप हमको रखोगे, उसी प्रकार हम प्रसन्न रहेंगे सुख में या दुःख में । हमारा आपके सामने कोई बल नहीं चलता । जीवों के प्रारब्ध कर्म सब आपके हाथ में हैं, आपसे अलग हम भाग कर कहॉं जायेंगे ? हे समर्थ ! आपकी समर्थाई सर्वत्र व्यापक है ॥१६॥
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दादू डोरी हरि के हाथ है, गल मांही मेरे ।
बाजीगर का बांदरा, भावै तहॉं फेरे ॥१७॥
टीका ~ हे हरि ! हमारी प्रारब्ध - कर्म रूपी डोरी आपके हाथों में है और हमारे गले में पड़ी है । जैसे बाजीगर बन्दर के गले में डोरी डालकर, जहॉं इच्छा हो, वहीं बन्दर को ले जाता है । इसी प्रकार हम तो बाजीगर के बन्दर की तरह हैं । आप प्रारब्ध कर्म डोरी को जिधर भी खींचोगे, उधर ही हम आते - जाते रहेंगे । आपकी समर्थाई सबसे ऊपर है ॥१७॥
कर्म डोरी गल में पड़ी, हाथ तुम्हारे मांहि । 
जगजीवन इनसे छूटि कै, भाजि कहॉं हम जांहि ॥
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ज्यों राखै त्यों रहेंगे, मेरा क्या सारा ।
हुक्मी सेवक राम का, बन्दा बेचारा ॥१८॥
टीका ~ हे परमेश्‍वर ! हम तो आपकी आज्ञा में चलने वाले आपके सेवक है । जैसे आप हमारे प्रारब्ध - कर्मानुसार, हमको सुखी दुखी रखोगे, उसी प्रकार उसमें हम सुखी रहेंगे । क्योंकि इसमें मेरा क्या जोर है ? हम तो आपके हुक्म में चलने वाले आपके गरीब सेवक हैं ॥१८॥
(समर्थ का अंग ~श्री दादूवाणी)

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