बुधवार, 20 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(ष.दि.- ९/१०)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
षष्ठम दिन ~ 
सखी ! जीव इक होत लड़ाई, 
एक संत ने मुझे सुनाई । 
है कुरंड मुख जिसके दोई, 
वृत्ति युद्ध यह नर में होई ॥९॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक जीव के शरीर में ही युद्ध होता रहता है। यह बात मुझे एक संत ने सुनाई थी। बता वह कौन है?” 
वां. वृ. - ‘‘यह कुरंड पक्षी है। उसके दो चोंच होती हैं। एक चोंच के आगे दूसरी चोंच चुगने लगती है तब उनमें लड़ाई हो जाती है कि तू मेरे आगे क्यों चुगती है।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो मनुष्य में ही तामसी, राजसी, सात्विकी वृत्तियों का युद्ध चलता रहता है। तू अब सात्विकी वृत्ति से, राजसी, तामसी वृत्तियों को जीतकर सात्विकी वृत्ति को स्थिर कर, जिससे तुझे शीघ्र ही भगवत् स्वरूप का बोध हो सके।” 
चढ़े एक गति बहु की रोके, वे सुख कारक मोके मोके । 
इन्द्र धनुष घन वर्षा केरे, नांहि, सत्संग कुकर्म घनेरे ॥१०॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक चढ़ता है तो बहुतों की गति रोक देता है और रुकने वालों से कभी-कभी सुख भी होता है। बता वे कौन हैं?” 
वां. वृ. - ‘‘इन्द्रधनुष चढ़ता है तब बहुत-से वर्षा के बादलों की गति रोक देता है। वे बादल समय-समय पर वर्षा द्वारा संसार को सुखदाता भी होते हैं।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो सत्संग और कुकर्म हैं। सत्संग का रंग हृदय पर आता है तब कुकर्मों को रोक देता है। वे कुकर्म अज्ञानियों को कभी-कभी सुखप्रद से भी दिखाई देते हैं किन्तु परिणाम में दु:ख रूप ही होते हैं। तू कभी कुकर्मों में मन न लगाना।” 
(क्रमशः)

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