बुधवार, 20 नवंबर 2013

*प्राण पवन ज्यों पतला ४/१९९*


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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*परिचय का अंग ४/१९९* 
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*प्राण पवन ज्यों पतला, काया करै कमाइ ।*
*दादू सब संसार में, क्योंहि गह्या न जाइ ॥१९९॥*
नूर तेज ज्यों जोति है, प्राण पिंड यो होइ ।
दृष्टि मुष्टि आवै नहीं, साहिब के वश सोइ ॥२००॥
काया सूक्ष्म कर मिलै, ऐसा कोई एक ।
दादू आत्म ले मिलैं, ऐसे बहुत अनेक ॥२०१॥
उक्त १९९ की साखी से २०१ की साखी तक दो सिद्धों को उपदेश दिया है । अतः यह प्रसंग कथा है - 
गुरु दादू पै सिद्ध दो, आये लघु कर देह ।
उपदेश कीन्हा उन्हों को, कहा सिद्धि है येह ॥१५॥
दादूजी के दर्शन करने दो सिद्ध आमेर में आये और दादूजी के शिष्य संतों से पू़छा - दादूजी कहां है ? उत्तर मिला गुफा में है । तब दोनों सिद्धों ने अपने शरीर सूक्ष्म बनाकर कपाटों की दरारों से भीतर जाकर दादूजी के दर्शन किये तथा वार्तालाप भी किया । दादूजी ने पू़छा - कपाट बन्द थे फिर आप लोग भीतर कैसे आये ? तब उन्होंने अपनी सिद्धि का अभिमान दिखाते हुये कहा । कपाटों की दरार से आ गये हैं । हमारे लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । 
यह सुनकर दादूजी उन के मन के भावों को समझ कर उक्त तीन साखियों से उनको उपदेश किया और कहा - यह सिद्धि तो चींटियों और मच्छरों में भी है । यह क्या सिद्धि है अर्थात् कु़छ नहीं है । तब दोनों सिद्ध बडे प्रभावित हुये और दादूजी का उपदेश मानकर ब्रह्म चिन्तन में लग गये ।
(क्रमशः)

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