सोमवार, 11 नवंबर 2013

रात दिवस का रोवणां ३/१३६

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*विरह का अंग ३/१३६*
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*रात दिवस का रोवणां, पहर पलक का नांहिं ।*
*रोवत - रोवत मिल गया, दादू साहिब मांहि ॥१३६॥*
साखी के पूर्वार्ध पर दृष्टांत - 
अजयपाल के रुदन को, पू़छ सकत नहिं कोय ।
वृद्ध विप्र गयो ? के, तीन सिद्ध को जोय ॥१२॥
तहां चार लख कोठड़ी, देखन कियो विचार ।
गज द्विज नन्दी देख के, खर चढ रोत अपार ॥१३॥
अजयपाल अजयसर के साधारण चौहाण क्षत्रिय थे । नाग पहाड़ में बकरियाँ चराया करते थे । एक बकरी नाग पहाड़ में उनकी बकरियों में आकर चरती थी और पहाड़ से उतरते समय वह पहाड़ पर ही रह जाती थी । बहुत समय होने पर एक दिन अजयपाल ने विचार किया कि यह बकरी किस की है ? पहाड़ पर रहने पर भी आज तक इसे किसी हिंसक जीव ने नहीं मारा है । यह कहाँ रहती है, आज इसका पता लगाना चाहिये । 
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जब वह बकरी बकरियों से अलग होकर जाने लगी तब अजयपाल भी उसके पीछे पीछे चला । वह एक गुफा में घुसी । आगे जाने पर प्रकाश दिख पड़ा । वहां एक संत विराजे थे । अजयपाल को देखकर कही - आ भाई ! बकरी की चराई लेने आया है क्या ? अजयपाल - नहीं भगवन् ! आप संतों से कैसी चराई लेनी है ? आपकी तो सेवा करना ही हमारा धर्म है । केवल देखने ही आया था कि यह बकरी किन की है ? इस निमित्त से आप के दर्शन भी हो गये हैं, यह परम लाभ मिला है । 
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अजयपाल की निष्कामता और नम्रता से संत प्रसन्न हो गये और वर दिया - तेरा अदृष्ट चक्र चला करेगा अर्थात् जो तेरी शपथ नहीं मानेगा उसका शिर कट जाया करेगा । किन्तु तीसरे कान में यह बात चली जायेगी तब चक्र चलना बन्द हो जायेगा । अब तुम जाओ । फिर अजयपाल प्रणाम करके आ गया । फिर वह बकरी अजयपाल की बकरियों में नहीं आई और अजयपाल के खोजने पर भी न वह गुफा ही मिली ।
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एक दिन अजयपाल के मित्र के साथ किसी अन्य से लड़ाई हो गई । वह दूसरा व्यक्ति कमजोर था । उसने उस अजयपाल के मित्र को अजयपाल की शपथ दिलाकर कहा - तू मुझे मत मार, उसने नहीं मानी तो तत्काल उसका शिर कट गया । फिर तो लागे अजयपाल की शपथ दिलाने लगे और जो न माने उसके शिर कटने लगे । तब वहां को प्रजा ने अजयपाल को अपना राजा मान लिया और उक्त अदृष्ट चक्र के प्रताप से उसका राज्य भी विशाल बन गाय । 
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एक दिन अजयपाल की पत्नी ने अजयपाल से पू़छा - हम साधारण क्षत्रिय थे । आपको यह शक्ति कैसे मिली ? अजयपाल ने कहा - यह बात कहने की नहीं है । राणी - मुझे नहीं बतायेंगे तो मै आत्म घात कर लूंगी । तब अजयपाल ने उसका हट देखकर बता दिया । उसी दिन से अदृष्ट चक्र बन्द हो गया । उसके बन्द होने के दुःख से राजा प्रति दिन प्रातः एक पहर रोने लगे और यह आज्ञा भी निकाल दी कि मेरे को रजा के विषय में कोई पू़छेगा तो उसे प्राणान्त दण्ड मिलेगा । 
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प्रजा ने अपने राजा के रोने संबंधी दुख को मिटाने के लिये सभा की और एक वृद्ध ब्राह्मण को वृद्ध और ब्राह्मण जानकर प्राणान्त दंड देगा ही नहीं और देगा तो आपके कुटुम्ब का पालन प्रजा करेगी । ब्रह्मण गया और राजा से पू़छा - प्रजा आपके रोने के कारण को जानकर उसके मिटाने का उपाय करना चाहती है । अतः आप बतायें । राजा - यह पूछने वाले के लिये तो प्राणान्त दंड की घोषणा हैं अतः आपको प्राणान्त दण्ड नहीं दिया जायेगा और इस प्रश्‍न का उत्तर नाग पहाड़ पर अमुक स्थान में मेरे गुरु हैं वे देंगे । वहा आप जायें और विशेष बात मैं आपलसे इस समय नहीं करुंगा ।
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ब्राह्मण वहां गये तो वे संत दोपहर तक रोते ही रहे । मध्यान्ह में गुफा से बाहर आये तब ब्राह्मण ने प्रणाम करके पू़छा - अजयपाल एक पहर क्यों रोते है ? संत ने कहा - मैं तो अपने निर्वाह के लिये फलादि लाने जा रहा हूं । इसका उत्तर अगले शिखर पर मेरे गुरु रहते हैं वे देंगे । ब्राह्मण वहां गया तो वे तीन पहर तक रोते ही रहे । तीसरे पहर गुफा से निकले तो ब्राह्मण ने उक्त प्रश्‍न किया । संत बोले - मुझे भूख लगी है, मै कंदमूलादि लाने जा रहा हूँ, तुम यहां ठहरो । 
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वहां एक जल का कुंड था उसके चार कोणों पर चार कोठडियां थीं । उनके ताले बन्द थे । संत ने उनकी चाबियां देकर ब्राह्मण को कहा - इनको खोलना नहीं और एक को खोले तो दूसरी को नहीं खोलना और दूसरी को खोलले तो तीसरी को मत खोलना । तीसरी को खोलले तो चौथी को तो कदापि नहीं खोलना, इतना कहकर संत चले गये ।
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ब्राह्मण ने सोचा - संतजी ने कहा था - एक कोठड़ी को खोल ले तो दूसरी को नहीं खोलना अत्यादि से तीन कोठड़ीयों को तो खोलने की आज्ञा एक प्रकार से दे ही दी थी । खोलकर देखू तो सही क्या है ? प्रथम को खोला तो एरावत हाथी की मूर्ति मिली फिर बन्द करने लगा तब हाथी की मूर्ति से आवाज निकली - बन्द क्यों करता है, मुझ पर बैठ तुझे इन्द्रपुरी दिखा लाऊँ । ब्राह्मण - संत आ जायेंगे । हाथी - उनके आने से बहुत पहले हम आ जायेंगे । 
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ब्राह्मण बैठ गया । हाथी उड़ा और इन्द्रपुरी पहुंच गया । देवसभा, नन्दन - वन आदि दिखाकर लौट आया । उसे बन्द करके दूसरी कोठड़ी खोली तो उसमें द्विज(पक्षी गरुड़) की मूर्ति थी । उसने भी कहा - मेरे पर बैठ वैकुण्ठ दिखा लाऊं । वह बैठ गया । गरुड़ वैकुण्ठ दिखाकर लौट आया । 
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उसे बन्द करके तीसरी कोठड़ी खोली तो उसमें नन्दीश्‍वर की मूर्ति मिली । उसने भी कहा - मेरे पर बैठ कैलाश दिखा लाऊँ । ब्राह्मण बैठ गया । कैलाश, भद्रवट आदि दिखा कर आ गया । उसे बन्द करके ब्राह्मण ने विचार किया - चौथी के लिये तो सर्वथा निषेध किया था, हो सकता है उसमें इन सबसे भी अधिकता होगी । 
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उसे खोला तो गधा की मूर्ति मिली । बन्द करने लगा तब उसने कहा - मेरे पर बैठ तेरे को अजयसर ले जाकर तेरे कुटुम्ब से मिला लाऊं । ब्राह्मण ने सोचा - ठीक है । कुल वालों को कह आऊंगा कि मैं तो अब संतो के पास ही रहूंगा । यहां वैकुण्ठ आदि के दर्शन सत्संग आदि का महानन्द मिलेगा । ब्राह्मण गधा पर बैठ गया ।
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गधा अजयसर के बाहर खड़ा होकर बोला मैं आगे नहीं जाऊंगा । तुम कुलवालों से मिलकर एक घंटे में आ जाना, नहीं आओगे तो मैं चला जाऊंगा । ब्राह्मण ने ज्यों ही ग्राम में प्रवेश किया कि पू़छनेवाले पू़छने लगे क्या उत्तर लाये ? घंटा मध्य में ही पूरा हो गया, घर पर तो वह पहुँच भी नहीं सका । स्मरण आते ही पीछा दौड़ा किन्तु गधा तो चला गया था । तब उसके वियोग में ब्राह्मण चार प्रहर रोने लगा । फिर धैर्य धारण करके कहा - राजा की कोई अद्भुत वस्तुं चली गई है इसी से रोते हैं । मेरे हाथ सें गधा चला गया है तो चारों पहर ही रोना आता है ।
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दोपहर रोनेवाले संत का तात्पर्य था कि मेरी आधी आयु भजन बिना चली गई, उसे याद करके रोते थे । तीन पहर रोनेवालों का रोना भी आयु के तीन भाग भजन बिना चले गये, उनको याद करके रोते थे । उक्त और अजयसर भी पहुँचा दिया था । उक्त प्रकार ही विरही संतजन भगवान के वियोग से रात दिन रोते ही रहते हैं । कहा भी है - पावस ऋतु भये नैन हमारे सूरदास के भजन का अंश ।

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