*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पंचम - तरंग” २७/२८)*
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**श्री दादूजी प्राकट्य टीला जी को ध्यान में दिखाना**
सम्वत् सोलह सौ एक, चैत्र सुदि आठैं नेक,
प्रगट अहमदाबाद सब सुखकंद जू ।
अष्टादश वर्ष बीते, धरा गुजरात तजे,
षट् वर्ष आप तपे शुद्ध चिदानन्द जू ।
भगति जहाज रूप, स्वामीजी संतन - भूप,
दीनों के कृपालु आप, मूरति आनन्द जू ।
बांधी दृढ पंथ पाज, थाप के भगति राज,
टीला कहे - सारो काज दादू दीन बन्धु जू ॥२७॥
आपकी कृपा से मैंने ध्यान में सर्व वृतान्त जान लिया कि - संवत् १६०१ चैत्र शुक्ला अष्टमी को आपने अहमदाबाद में अवतार लिया । अठारह वर्ष बीतने पर गुजरात - प्रदेश छोड़ दिया । फिर छ: वर्ष तक शुद्ध सच्चिदानन्द का ध्यान करते हुये तपस्या - रत रहे । आप तो स्वयं शुद्ध सच्चिदानन्द हैं, भक्ति का जहाज रूप हैं, सभी संतों में भूप सदृश शिरोमणि हैं । हे दीनों पर कृपा करने वाले, आनन्दमूर्ति ! आपने ब्रह्मपंथ की दृढ़स्थापना की है, इससे भक्ति का सुराज स्थापित होगा । हे दीनबन्धु ! भक्त सेवकों के सर्व कार्य आप ही सफल बनाना ॥२७॥
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**इन्दव - छन्द ~ शिष्यों का अचल भक्ति मांगना**
यौं करि हैं विनती निज शिष्यन,
श्री मुख आप उच्चार करी है ।
ल्यो वरदान दियो मन भावन,
शिष्य कहें, दादू भक्ति खरी है ।
पूरण भाव रहे निशि वासर,
यों जग तें यह जीव तरी है ।
ले वरदान सबै सुखदायक,
टीला हजूरि हिं छाप धरी है ॥२८॥
शिष्य टीलाजी द्वारा यों विनती सुनकर स्वामीजी बोले - इच्छानुसार जो मन भावे, सो वरदान मांगो । शिष्यों ने कहा - आपकी अचल भक्ति दीजिये, अहनिश आपमें पूर्ण गुरुभाव, समर्पण भाव बना रहे, इसी भाव से यह जीव इस संसार से तिर सकेगा । स्वामीजी ने प्रसन्न होकर सिर पर हाथ धरा । इस तरह वरदान पाकर टीला जी सुखी हो गये । गुरु हुजूरी की छाप धारण किये सेवा करते रहे ॥२८॥
(क्रमशः)
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