सोमवार, 11 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(पं.दि.- १३/१४)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
पंचम दिन ~ 
एक चमक अत्यन्त डरावे, 
कबहु तो मम मन घबरावे ।
वह बिजुली है मैंने जानी, 
नहिं, यह चिन्ता दुखद सयानी ॥१३॥
आं. वृ. - “एक प्रगट होकर भयभीत करती है । कभी-कभी तो उससे मेरा मन भी घबराता है । बता वह कौन है ?’’
वां. वृ. - “बिजुली चमकने से भय होता होगा !’’ 
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो चिन्ता है । जब स्रदय में कोई भी प्रकार की चिन्ता होती है तब अपने आप ही मन में दु:ख होने लगता है । तू अनावश्यक चिन्ता कभी भी न किया कर और कभी कोई चिन्ता हो भी जाय तो तत्काल ही विचार द्वारा उसे नष्ट कर दिया कर । क्योंकि चिन्ता सभी रोगों से अधिक मन को कमजोर बनाने वाली है और मन कमजोर होने पर कल्याण साधन होना असंभव ही है । अत: मन में चिन्ता को स्थान न देकर, उसे हटाने का काम ही करना चाहिये ।’’
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वेग भयंकर इक का देखा, 
आवत फेट बहे सो पेखा ।
समझ गई मैं सरिता भारी, 
नहिं, आशा है यह तो प्यारी ॥१४॥
आं. वृ. - “एक का महान् भयंकर वेग है और उसकी टक्कर में जो आता है सो तो उसके प्रवाह में बह ही जाता है । बता वह कौन है ?’’ 
वां. वृ. - “नदी है ।’’ 
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो आशा है । इसके प्रवाह में जो पड़ जाता है वह संसार समुद्र में ही जाता है ।(अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की इच्छा को ही आशा कहते हैं) तू आशा के अधीन न होना किन्तु आशा को अपने अधीन करना, तब ही अपनी पारमार्थिक उन्नति देख सकेगी । आशा को ही सज्जनों ने परम दु:ख और निराशा को ही परमसुख कहा है । आशा रहित व्यक्ति ही मुक्ति पद का अधिकारी होता है । यह सदा याद रखना ।’’
(क्रमशः)

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