बुधवार, 6 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(पं.दि.- १/४)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
पंचम दिन ~ 
कवि - 
वाह्य वृत्ति दिन पंचमे, परम हर्ष के साथ ।
आकर आंतर वृत्ति को, सरति नवाया माथ ॥१॥
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सन्मुख लख कर वाह्य को, आंतर परम उदार ।
युक्ति युक्त वाणी सुखद, करने लगी उचार ॥२॥
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इक प्रवाह अद्भुत अस देखा, 
बहा जात भव उसमें पेखा ।
समझ गई सखि काल विलासा, 
नहिं, सखि महा प्रबल है आसा ॥३॥
आं. वृ. - “एक का ऐसा प्रवाह देखा जाता है, जिसमें सभी संसार बहा जा रहा है । बता वह क्या है ?’’ 
वा. वृ. - “यह तो काल का प्रवाह है ।’’ 
आं. वृ. - “नहीं, सखि ! यह तो महाबलवती भोगाशा का प्रवाह है । तुझे सांसारिक भोगों की आशा छोड़ देनी चाहिये । जो समय पर मिल जाय उसी में संतुष्ट रहना सीख । क्या व्यवहारिक हो वा परमार्थिक दोनों ही कार्यों में आलस कभी भी नहीं करा कर । उठाये कार्य को पूर्ण करे बिना नहीं छोड़ा कर । अशुभ संकल्प, अशुभ काम नहीं करना । असत्य और कठोर मत बोला कर ।
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सोवत सुख जागे दुख होई, 
उसको जीत सके नहिं कोई ।
कुंभ कर्ण है यह बल धामा, 
नहिं, सखि ! महा प्रबल है कामा ॥४॥
आं. वृ. - “जिसके सोते रहने से प्राणी सुखी और जागने पर दुखी होता है तथा जिसे कोई भी जीत नहीं सकता । बता वह कौन है ?’’ 
वा. वृ. - “कुम्भकर्ण है ।’’ 
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो महाबली काम है । तू कभी कामाधीन नहीं होना, काम को मर्यादा में रखना । कामाधीनों की दुर्गती संसार में प्रसिद्ध है । रावण, कीचक आदि की कथायें तूने सुनी ही होगी ।’’ 
(क्रमशः)

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