बुधवार, 6 नवंबर 2013

= प. त./१६-७ =



*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पंचम - तरंग” १६/१७)* 
बनवारी दास जी रतीया में श्री दादू जी का नाम सुना की श्री दादू जी बहुत बड़े महान है सारे जग में प्रसिद्ध है, यश फैला हुआ है, दर्शनों की चाह जगी परंतु बाबा बनवारी दास जी नेत्रों से हीन थे दोनो नेत्रों से अन्धे थे, सन्यासी महात्मा थे मन में दर्शनों की चाह होने से श्री दादू जी महाराज ने सुनी, बाबा बनवारी दास की इच्छा पूरी की श्री दादू जी महाराज मंदिर की ड्योडी पर विराजे भगवा भेष में दर्शन दिये, बाबा को दोनों नेत्रों से दिखने लग गया था । श्री दादू जी को संकाराचार्य का अवतार ही माना, इच्छा पूरी की बाबा बनवारी दास जी और हरिगीर जी दोनों ही सांभर में आकर शिष्य बन गये ।
द्वारिका जु दामोदर गोविन्द रु श्याम प्रिय, 
सिन्धु वनमाली जन चतुर भक्ति पारी है । 
माधोजी गुडिया छाप, देवेन्द्र मुनि जु आप, 
मदन रु चतुरदास भक्तिकरी सारी है । 
नारायण बालाजन छीतर बैरागी मन, 
राम नरसिंह दौड़ गुरु नाम धारी है । 
पाँचू दुर्गा धर्मदास माधोकाणी रामदास, 
दादू गुरु धाम करि भक्ति प्रीति पारी है ॥१६॥ 
द्वारिकादासजी, दामोदरजी, गोविन्ददासजी, श्यामदासजी, सिन्धुदासजी, वनमालीजी, गुड़ प्रसाद बाँटने वाले माधोजी, देवेन्द्रजी, मुनिरामजी, मदनदासजी, चुतरदासजी, नारायणदासजी, बालदासजी, वैरागी छीतरदासजी, रामदासजी, नरसिंहदासजी, पाँचूदासजी, दुर्गादासजी, धर्मदासजी, काजी गोत्रीय माधोदास जी, रामदास जी आदि सेवक भक्तों ने दादूजी का शिष्यत्व ग्रहण किया । दादू धाम की सेवा की, भक्ति द्वारा पारंगत भये ॥१६॥ 
*इन्दव छन्द* 
*सिकदार ने पक्का बंगला बनवाया* 
एक समै जल सूखि सरोवर, 
वो सिकदार निवावत शीशा । 
आयसु होय पको बंगलो करूं, 
दूर करुं तृणिया जगदीशा । 
आयसु पाय कियो बंगलो जब, 
सम्वत् सोलह सौ उनतीसा । 
पूजा करि पधराय दिये गुरु, 
भीर भई जन भक्त मुनीशा ॥१७॥ 
एक समय साँभर का जलाशय सूख गया था, तब सिकदार ने शीश निवाकर अर्ज की हे गुरुजी ! आज्ञा हो तो यह तृण कुटिया हटाकर पक्का भवन बनवा दूं । गुरु आज्ञा से सम्वत् १६२९ में श्री दादूजी की ध्यान शिला पर पक्का भवन बनवाया गया । विधिवत् पूजा करके स्वामीजी को विराजमान किया । उस समय भक्तजनों की बहुत भीड़ एकत्र थी ॥१७॥ 
(क्रमशः)

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