रविवार, 24 नवंबर 2013

= ष. त./१५-१६ =

*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षष्ठम - तरंग” १५/१६)* 
*श्री दादूजी ने असली माला तिलक बताया*
दादु कहें - मन माल दई गुरु, 
हाथ बिना वह जाप सही है ।
कंठ हु बाँध दई निजनाम कुं, 
वृति खरी इकसार रही है ।
ज्ञान तिलक सुहावत शीशहिं, 
छाप वही गुरु भक्तिकही है ।
व्यापक ब्रह्मउपासन है निज, 
यों नित जाप अजप्प लही है ॥१५॥ 
यह साधु का स्वांग तो ऊपरी दिखावा है । वास्तविक साधुवेश तो कुछ अन्य प्रकार का होता है । हमारे गुरुजी ने तो हमें मनरूपी माला बताई, जिसके द्वारा बिना हाथ ही निरन्तर श्वासों - श्वास शुद्ध जाप होता रहता है । 
श्री दादूजी महाराज ने वास्तविक ज्ञान बताया 
सद्गुरु माला मन दिया, पवन सुरति सौं पोइ ।
बिन हाथौं निशदिन जपें, परम जाप यों होइ ॥ 
गले में परमेश्वर के नाम स्मरण - रूपी कंठी बांधी, जिसे ब्रह्म में एकतार वृति(डोरी) से खरी करने को कहा । 
दादू नीका नांव है, सो तू हिरदै राख ।
पाखंड परपंच दूर कर, सुन साधू जन की साख ॥ 
सद्गुरु ने शीश पर ज्ञान का तिलक लगाया, और ईश्वर भक्ति की छाप लगाई । इन बाह्यप्रपंचों से हमें कोई मतलब सिद्ध नहीं करना । हम तो व्यापक ब्रह्मकी उपासना करते हुये नित्य अजपा जाप करते रहते है ॥
माला तिलक सौ कुछ नहीं, काहू सेती काम ।
अन्तर मेरे एक है, अह निशि उसका नाम ॥१५॥ 
*श्री दादूजी महाराज ने दूसरी गद्दीयों के वास्ते मना किया*
ना हम चाहत पाट धरा किन, नांहि जु चाह कबीर कि गादी ।
यों सुनि संत दुखी मन भीतर, सांभर मांहि तु भक्ति प्रसादी ।
*संतों ने आमेर के लिये कहा*
तुर्क चिताय कियो पुर सेवक, 
या मम जोर चले न विवादी ।
जो हिन्दवान पन्थे न चलो तुम, 
बेगहि भेष नशे सत वादी ॥१६॥ 
श्रीदादू जी ने कहा - हमें कबीर जी की पाट - गादी की चाहना नहीं है । यों सुनकर वे वैरागी साधु मन ही मन बहुत दुखी हुये, और सोचने लगे कि - साँभर में तो सब लोग दादूजी की भक्ति का ही प्रसाद ले रहे है । जब इन्होंने विधर्मी तुर्को को ही अपने प्रभाव से वश में कर लिया तो यहाँ हमारा जोर नहीं चलने वाला । अत – विवाद करना व्यर्थ है । अन्त में वे साधू चलते - चलते बोले - हे विवादी दादूजी ! जो तुम हिन्दुओं के परम्परागत धर्म पथ पर नहीं चलोगे, तो तुम्हारा भेष शीध्र ही नष्ट हो जावेगा । यह हमारी बात सच मानना ॥१६॥ 
(क्रमशः)

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