卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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षष्ठम दिन ~
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इक की सेवा में जग लागा,
तज कोउक बड़भागी भागा ।
माया को सेवे संसारा, नहिं,
सखि ! देह सभी को प्यारा ॥२१॥
आं. वृ. - ‘‘संपूर्ण जगत् एक की सेवा में लगा है। उसका त्याग कोई बिरला ही कर पाता है। बता वह कौन है?”
वां. वृ. - ‘‘माया है।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो प्राणियों का शरीर है। सभी प्राणी अपने-अपने शरीरों के पोषण में लग रहे हैं। कोई विरले संत ही देहाध्यास को त्याग कर के ब्रह्मनिष्ठ होते हैं। तुझे भी तत्व ज्ञान की प्राप्ति के लिये देहाध्यास त्यागना ही पड़ेगा।”
वां. वृ. -
‘‘देहाध्यास तज हे सखी ! जीना किस विधि होय ।
मुझे समझ आती नहीं, समझा सम्यक सोय ॥२२॥”
आं. वृ. -
‘‘समझ अभी नहिं आयगी, यह गहरी है बात ।
कहूं उसी पर ध्यान दे, सुन सोचा कर रात ॥२३॥”
(क्रमशः)
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