रविवार, 10 नवंबर 2013

दादू कर बिन शर बिन कमान बिन ३/१२०

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*विरह का अंग ३/८३-८५-९५*
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*दादू कर बिन शर बिन कमान बिन, मारै खैंचि कसीस ।* 
* लागी चोट शरीर में, नख शिख सालै सीश ॥१२०॥* 
दृष्टांत - 
सालभद्र बत्तीस तिय, त्यागी नृप शिर जान । 
धने सेठ तिहिं त्याग सुन, षोड़स तजी सुजान ॥९॥ 
सालभद्र एक नगर सेठ का पुत्र था । सेठ का देहान्त हो गया था । फिर सालभद्र ही पिता के कार्य करने लगा । एक दिन बाजार में बहुमूल्य साड़ियां आई थीं । सालभद्र के बत्तीस स्त्रियां थीं अतः उसने बत्तीस साड़ियां खरीदकर एक - एक बत्तीसों को दे दी । उसकी स्त्रियों के नियम था कि जो साड़ी पहने शौचालय में चली जाती थीं उसे फिर अन्य समय में नहीं पहनती थीं । 
एक दिन एक भूल से उक्त साड़ी पहने ही शौचालय में चली गई । फिर उसने वह साड़ी अपनी भंगिनि को दे दी । भंगिनि उसे पहनकर राजा के अन्तःपुर में गई थी । उसे देखकर राणी ने पू़छा - यह साड़ी तेरे पास कहाँ से आई । ऐसी तो हमारे पास भी नहीं है । भंगिनि ने उक्त कथा सुनादी । रात्रि को राणी ने राजा से कहा - आपके नगर में ऐसे सेठ हैं जिनकी स्त्री भंगिनि को ऐसी साड़ी देती है जो हमें भी प्राप्त नहीं है । आप उस सेठ से मिलते हैं या नहीं ? राजा - सेठ से तो मिलते ही रहते थे । वे वर्ष में एक दो बार निमंत्रण देकर हमको अपने घर भी बुलवाते थे और भोजन भी साथ ही करते थे । 
किन्तु अब सेठ का तो देहान्त हो गया है और उसका पुत्र है । उसने हमें निमंत्रण भी नहीं दिया और हम भी नहीं गये । राणी ने कहा - जाना चाहिये । राजा - अच्छा अब जायेंगे । फिर राजा ने सेठानी को सूचना दी कि - कल हम सालभद्र से मिलने आयेंगे । सालभद्र की माता ने सालभद्र को कहा - कल अपने घर राजा आयेंगे । सालभद्र ने कहा - खरीद लेंगे । माता - वह खरीदने की वस्तु नहीं हैं । देश के और हमारे स्वामी हैं । कल तुमको भी सेठजी के समान उनका स्वागत सत्कार करना होगा औेर जैसे मैं कहूँ वैसे ही उसके साथ बैठकर भोजन भी करना होगा । उनका अनादर करने से हमारे पर विपत्ति आ सकती है । 
दूसरे दिन राजा आये । सालभद्र ने माता के कथानानुसार राजा का स्वागत किया और एक बड़े कमरे में एक ही गलीचे पर दोनों बैठे । भोजन तैयार होने पर दोनों बराबर बैठकर भोजन करने लगे । भोजन हो जाने पर सालभद्र की माता ने राजा से पू़छा - आपके पास सालभद्र बहुत देर से बैठा है तथा भोजन भी साथ ही किया है अतः इसमें आपको कोई दोष दिखाई दिया हो तो बताइये । राजा ने कहा - एक तो सालभद्र बारंबार आसन बदलता है । दूसरे आंख मीचता है । तीसरे चावल चुन चुनकर खाता है, ग्रास बनाकर नहीं खाता । ये तीन बात सालभद्र में मुझे अनुचित ज्ञात हुई हैं । 
सेठानी - महाराज ! ये तीनों तो दोष नहीं है, कारण वश ही ऐसा हुआ है, सदा ऐसे नहीं करता है । बारंबार आसन बदलने का कारण - इस गलीचे में कोई - कोई बाल खरगोश का है, वह चुभने से ही आसन बदलता था । इस कमरे के द्वार के ऊपर लगे हुए काच का चिलका आँख पर पड़ने से आँख मीचता था । चावल चुन चुनकर खाने में कारण है - यह प्रतिदिन जो चावल खाता था वह आज इसके खाने जितना तो था किन्तु आज आपके साथ बैठकर भोजन करना था, अतः अलग अलग चावल बनाना उचित न समझकर अन्य चावल मिलाकर बनाये थे, इससे यह अपने खाने योग्य चावल चुन चुनकर खाता था । 
राजा ने कहा - तब तो दोष नहीं है । फिर राजा तो चले गये किन्तु सालभद्र को आजकी पारधीनता से वैराग्य हो गया । उसने सोचा - मैं वन में जा कर ईश्वर भजन करके पूर्ण स्वतंत्र बनूंगा । फिर बत्तीस स्त्रियों के आग्रह से तेतीस वें दिन वन जाने का निश्चय किया । सालभद्र की बहिन धना सेठ को व्याही थी । सालभद्र की माता का उसे पत्र मिला तब वह अपने पति को स्नान करा रही थी । ग्रीष्म ऋतु थी । पत्र पढ़ते ही उसकी आँखे से अश्रुधारा चल पड़ी । गरम गरम बिन्दुयें शरीर पर पड़ी तह धना ने ऊपर देखा तो ज्ञात हुआ पत्नी रो रही है । 
रोने का कारण पू़छा तो पत्र बता दिया - तैतीसवें दिन वन में जाने की बात पढ़कर धना ने कहा - कायर है, भजन करने के लिये तो तत्काल ही जाना चाहिये । तैतीस दिन प्राण रहे या न रहे । यह सुनकर पत्नी ने कहा - ऐसे तो आप हो सकते हैं । यह सुनते ही धना गीली धोती कंधे पर डालकर वन को चला गाय । साखी में - कर बिन शर बिन कमान बिन, मारे खैचिं कसीस इसी पर यह दृष्टांत है अर्थात् वचन बाण ऐसा लगता है जैसे धना के लगा था ।

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