रविवार, 10 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(पं.दि.- ११/१२)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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पंचम दिन ~
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आवत जिता उताहि समावे, 
सखी ! नहीं वह कबहुं अघावे ।
समझ गई जल बंवी मांहीं, 
सखि ! तृष्णा बंबी स्थल नांहीं ॥११॥
आं. वृ. - “एक ऐसी है जिसमें जितना आवे वह सभी समा जाता है फिर भी वह तृप्त नहीं होती । बता वह कौन है ?’’
वां. वृ. - “बंवी स्थल है । उसमें जितना भी जल आता है वह सभी समा जाता है ।(पृथ्वी में जो छेद होता है उसे ही बंबी स्थल कहते हैं) ।’’
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो तृष्णा है प्राप्त वस्तुओं के बढ़ाने की इच्छा को तृष्णा कहते हैं । यह वस्तुओं से कभी भी पूरी नहीं होती । संतोष के द्वारा ही इसका अंत होता है । अत: तुझे अनावश्यक वस्तुओं को बढ़ाने की इच्छा छोड़ देनी चाहिये । तभी शांति मिलेगी ।’’
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नारि दोउ घर में अस देखी, 
संग रहे से शांति न पेखी ।
समझ गइ मैं नणाद भुजाई, 
नहिं, तृष्णा ईर्ष्या सखि ! गाई ॥१२॥
आं. वृ. - “घर में दो स्त्री ऐसी देखी हैं, जब वे अधिक साथ रहती है तब शांति नहीं रहती । बता वे कौन है ?’’
वां. वृ. - “ये तो नणद भोजाई हैं । प्राय: नणद भोजाइयों में अनबन रहती है ।’’
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! वे तो तृष्णा और ईर्ष्या हैं । जिसके स्रदय में दोनों रहती हैं उसे शांति नहीं मिलती । तू दोनों को ही स्रदय में नहीं आने देना । यदि वे तेरे स्रदय में आ बसेगी तो तुझे भी शांति प्राप्त नहीं हो सकेगी ।’’
(क्रमशः)

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