卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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षष्ठम दिन ~
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कवि -
आंतर सुन बच वाह्य के, मुदित होय सह प्रेम ।
कथने लागी वर वचन, जिनसे होता क्षेम ॥१६॥
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वेग अखंड न अंतर जामें,
नहि विपरीत करे को तामें ।
समझ गई सखि ! यह है गंगा,
काल वेग है परम अभंगा ॥१७॥
आं. वृ. - ‘‘जिसका वेग अखंड चल रहा है और उसे कोई भी रोक नहीं सकता; बता यह कौन है?’’
वा. वृ. - ‘‘गंगा है।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखी ! वह तो काल का वेग है। तू भी इस काल वेग से बचने का साधन हरि-भजन निरंतर किया कर। यदि नहीं करेगी तो बारंबार काल प्रवाह में बहती रहेगी।”
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एक लगे चंचलता आवे,
ता विन निश्चल देखा जावे ।
यह पताक का वसन सयानी,
नहिं सखि ! राजस-वृत्ति बखानी ॥१८॥
आं. वृ. - ‘‘एक के लगते ही एक में चंचलता देखी जाती है। बता वह कौन है?”
वां. वृ. - ‘‘वायु और पताका का पट है। वायु चलती है तब ही ध्वजा का वस्त्र हिलने लगता है; और वायु न लगे तो पताका दंड पर चिपका रहता है।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! मैंने तो यह राजसी वृत्ति कही है। रजो गुण ही चंचलता में कारण है। अत: तुझे रजोगुण को कम करने के लिये सदा ही परम प्रयत्न करते रहना चाहिये।”
(क्रमशः)
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